Wednesday, October 28, 2009

वंदे मातरम् गाया तो काफिर हो गई सलमा



आज नेट पर कुछ खोज रहा था की एक समाचार पर निगाह पद गई .उस समाचार को पड़ कर चोक गया .क्यों ना आप सब को भी इस समाचार से अवगत करा दू. पडिये...जनाब ...

देश को स्वतंत्र कराने के लिए धर्म व जात का बंधन नहीं देखा गया लेकिन ताजनगरी में वंदे मातरम् गाने पर मुस्लिम महिला को काफिर घोषित कर दिया गया। इस 'जुर्म' की सजा उसे मारपीट कर घर से निकाल कर दी गई। पीड़िता सलमा उस्मानी ने इसकी रिपोर्ट दर्ज कराने के लिये थाने में तहरीर दी है।
शाहगंज क्षेत्र के न्यू खबासपुरा में घर-गृहस्थी का विवाद छोड़ पति-पत्नी के बीच सम्प्रदाय की कट्टरता ने दरार पैदा कर दी है। सलमा को अपने पति अब्दुल सत्तार से डर है। उसने इसकी तहरीर शाहगंज थाने में भी दी है। सलमा ने बताया 19 को उसके पति अब्दुल सत्तार अपने मित्र से किसी फतवे को लेकर चर्चा कर रहे थे। कह रहे थे कि वंदे मातरम् गाने वाले की तो शवयात्रा में जाना भी मुस्लिम के लिये काफिर होने जैसा है। तभी बात में दखल देते हुये सलमा ने कहा कि भारत में रहते हैं तो वंदे मातरम् गाने में किसी को क्या हर्ज है। इसी बात पर बहस शुरू हो गई। सलमा ने बताया कि पति व उसके दोस्त कहने लगे कि तू भी वंदे मातरम् गायेगी तो काफिर हो जाएगी। गर्मागर्मी में ही सलमा ने 'वंदे मातरम्' बोल दिया।
इस पर अब्दुल सत्तार ने मोहम्मद शमीम, मोहम्मद अली, जीनत बेगम, अंजुम बेगम और बबलू खान के साथ मिलकर सलमा से मारपीट की और घर से निकाल दिया। शाहगंज थाने पहुंची सलमा पुलिस को तहरीर लेकर दोबारा घर छोड़ गई। सलमा ने बताया अब वह दिनभर घर में नहीं रह सकती। सलमा व अब्दुल के बीच कई सालों से दहेज का मामला भी चल रहा है, जो कोर्ट में विचाराधीन है। लेकिन अब्दुल समझौते के बाद सलमा को वापस घर ले आया था।

निचे इस समाचार का लिंक है .आप उस पर जाकर देख सकते है.
http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_5878478.html

Friday, October 23, 2009

जहां कंडे में होता है अंतिम संस्कार

भारत में हिंदुओं के दाह-संस्कार की प्रक्रिया में शव को लकड़ी के गट्ठर पर लिटाया जाता है। सदियों से यही परंपरा चली आ रही है। लेकिन लकड़ी की कमी के चलते उत्तरी बिहार के कई गांवों में अंतिम संस्कार में लकड़ी की जगह सिर्फ गोबर के कंडों (उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में इस को उप्पले भी बोलते है ) का इस्तेमाल किया जा रहा है। कंडे में किया जाने वाला यह अंतिम संस्कार पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद है। कंडे में किए जाने वाले दाह संस्कार की इस प्रथा को सामाजिक स्वीकृति भी मिल गई है। दरअसल बिहार में दाह-संस्कार में आम की लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन हर साल आने वाली बाढ़ के चलते यहां पेड़ों की संख्या बहुत कम रह गई है। नतीजन आम के पेड़ों को काटने पर पाबंदी लगा दी गई है। इस कारण लोगों ने कंडे में अंतिम संस्कार की विधि ईजाद की।
दाह संस्कार करने की इस प्रथा को 'गोराहा' कहा जाता है। गोबर की आसानी से उपलब्धता व इसे पवित्र मानने के कारण गोराहा की स्वीकार्यता तेजी से बढ़ रही है।
क्यों शुरू हुई यह प्रथा
कंडे में शवदाह के पीछे कई कारण हैं। लकड़ी में अंतिम संस्कार करने में औसतन एक पेड़ की लकड़ी का इस्तेमाल होता है जो काफी महंगा पड़ता है। इसकी तुलना में कंडे में अंतिम संस्कार न केवल सस्ता है बल्कि पर्यावरण के लिहाज से भी फायदेमंद है।
बिहार में जब पूरा इलाका बाढ़ के पानी में डूबा हो तो पेड़ से लकड़ी काट कर लाना बेहद श्रमसाध्य और महंगा पड़ता है। जाहिर है जब पूरा जंगल पानी में डूबा हो तो अंतिम संस्कार के लिए भिन्न प्रक्रिया खोजना लाजिमी हो जाता है। बिहार में कुल क्षेत्रफल का महज सात फीसदी इलाका जंगलों से आच्छादित है। इसमें भी उत्तर बिहार के कुल 1.92 फीसदी क्षेत्र में ही जंगल है।
क्या है गोराहा
अंतिम संस्कार की गोराहा पद्धति में एक गढ्डा खोदा जाता है, जिसमें मचान की तरह कंडे की तीन ऊध्र्वाधर परतें बिछाई जाती हैं। कंडे की चौथी तह उसी स्थिति में बनाई जाती है जब मिंट्टी में नमी ज्यादा हो।
इसके बाद शव को गढ्डे में बैठा दिया जाता है ताकि वह कम क्षेत्रफल घेरे। इसके बाद नीचे की तह में आग लगाई जाती है।





 



सस्ती विधि है गोराहा

एक शवदाह में जहां 240-280 किग्रा लकड़ी की जरूरत होती है वहीं गोराहा में सिर्फ 200 किग्रा कंडे में अंतिम संस्कार हो जाता है। लकड़ी से अंतिम संस्कार करने में जहां तीन से चार हजार रुपये खर्च होते हैं वहीं गोराहा में महज 500 रुपये में क्रियाविधि संपन्न हो जाती है। यही नहीं गोराहा में समय की भी काफी बचत होती है। लकड़ियों से शवदाह में 3-4 घंटे का समय लगता है जबकि गोराहा में यह काम करीब डेढ़ घंटे में हो जाता है।