राजस्थान को महलों, किलों और हवेलियों की धरती होने के साथ-साथ मेलों और उत्सवों की धरती होने का गौरव भी हासिल है। मरुभूमि के इस अंचल को प्रकृति ने भले ही चटख रंगों से नहीं संवारा, लेकिन मरुवासियों ने इसे अपनी संस्कृति के रंगों से ऐसा सजा लिया है कि दुनिया देखते नहीं थकती है। इन रंगों की छटा यहां के मेलों और उत्सवों में नजर आती है। लोक के ऐसे ही रंगों से सजा एक शानदार आयोजन है पुष्कर मेला। जैसा कि नाम से ही विदित होता है, यह मेला राजस्थान की मंदिर नगरी पुष्कर से जुडा है। वैसे तो वर्ष भर पुष्कर में तीर्थयात्रियों और पर्यटकों का आना-जाना बना रहता है। लेकिन पुष्कर मेले के दौरान इस नगरी में आस्था और उल्लास का अनोखा संगम देखा जाता है। पुष्कर को इस क्षेत्र में तीर्थराज कहा जाता है और पुष्कर मेला राजस्थान का सबसे बडा मेला माना जाता है। पुष्कर मेले की प्रसिद्धि का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि ऐतिहासिक धरोहरों के रूप में ताजमहल का जो दर्जा विदेशी सैलानियों की नजर में है, ठीक वही महत्व त्योहारों से जुडे पारंपरिक मेलों में पुष्कर मेले का है।
पुष्प से बना पुष्कर
पुष्कर को इस क्षेत्र में तीर्थराज कहे जाने का गौरव इसलिए प्राप्त है क्योंकि यहां समूचे ब्रह्मांड केरचयिता माने जाने वाले ब्रह्मा जी का निवास है। पुष्कर के महत्व का वर्णन पद्मपुराण में मिलता है। इसके अनुसार एक समय ब्रह्मा जी को यज्ञ करना था। उसके लिए उपयुक्त स्थान का चयन करने के लिए उन्होंने धरा पर अपने हाथ से एक कमल पुष्प गिराया। वह पुष्प अरावली पहाडियों के मध्य गिरा और लुढकते हुए दो स्थानों को स्पर्श करने के बाद तीसरे स्थान पर ठहर गया। जिन तीन स्थानों को पुष्प ने धरा को स्पर्श किया, वहां जलधारा फूट पडी और पवित्र सरोवर बन गए। सरोवरों की रचना एक पुष्प से हुई, इसलिए इन्हें पुष्कर कहा गया। प्रथम सरोवर कनिष्ठ पुष्कर, द्वितीय सरोवर मध्यम पुष्कर कहलाया। जहां पुष्प ने विराम लिया वहां एक सरोवर बना, जिसे ज्येष्ठ पुष्कर कहा गया। ज्येष्ठ पुष्कर ही आज पुष्कर के नाम से विख्यात है।
कालांतर में वह प्राचीन मंदिर आक्रांताओं द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था। सन् 1809 में सिंधिया के एक मंत्री गोकुल चंद पारेख ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। वैसे अब अन्य कई स्थानों पर मंदिरों में ब्रह्मा जी की एकल प्रतिमा प्रतिष्ठित की जाने लगी है, अन्यथा उनकी प्रतिमा हर स्थान पर त्रिमूर्ति के रूप में ही विद्यमान होती थी। ब्रह्मा मंदिर के अलावा यहां महादेव मंदिर, वाराह मंदिर, रंग जी मंदिर और वैकुंठ मंदिर प्रमुख हैं। पुष्कर में मंदिरों की कुल संख्या लगभग चार सौ है। इसीलिए इसे मंदिर नगरी भी कहा जाताहै।
और लगने लगा मेला
समय के साथ श्रद्धालुओं की संख्या बढती गई। तब न जाने कब आस्था के साथ आमोद-प्रमोद और अनुरंजन के भाव जुड गए और पर्व ने एक लोकोत्सव अर्थात मेले का रूप ले लिया। पहले वस्तु विनिमय की परंपरा थी। इसलिए यह मेला जीवन की आवश्यक वस्तुओं के विनिमय का बहुत बडा केंद्र भी बन गया। किसानों के जीवन में मवेशियों का विशेष स्थान होता है। अत: यहां मवेशियों का क्रय-विक्रय भी शुरू हो गया। उसके साथ ही मेले का आकार बढता गया। आज भी इस मेले ने अपना सदियों पुराना विशिष्ट ग्रामीण और बहुरंगी चरित्र बनाए रखा है। इससे प्रभावित हो लाखों की संख्या में लोग यहां आते हैं। पुष्कर नगरी में हर वर्ष कार्तिक माह में भव्य मेला लगता है। इस विश्वप्रसिद्ध मेले में पांच लाख से अधिक श्रद्धालु, ग्रामवासी, पशुपालक और देश-विदेश के सैलानी शिरकत करते हैं। पर्यटकों के बढते आकर्षण को देख राज्य के पर्यटन विभाग ने इसके साथ कई रोचक गतिविधियां भी जोड दी हैं। वैसे तो यह मेला पूर्णिमा से एक माह पूर्व ही भरना शुरू हो जाता है। लेकिन प्रमुख गतिविधियां एकादशी से पूर्णिमा तक होती हैं। मेला स्थल के व्यापक विस्तार में हजारों मवेशी, स्थानीय व्यापारियों की सैकडों गुमटियां, ऊंटगाडियां और डेरा डाले राजस्थानी परिवारों के पारंपरिक वेशभूषा में घूमते हजारों स्त्री-पुरुष मेले के दृश्य का खास हिस्सा होतहैं।
पशुओं के करतब
किसी भी मेले को फोटोजेनिक स्वरूप प्रदान करने वाले विशालकाय चक्करदार झूले, लकडी के हिंडोले, चरखियों आदि का इस मेले में होना लाजिमी है। काला जादू के शो और मौत का कुआं जैसे करतब दिखाने वाले घुमंतू सर्कस भी पुष्कर मेले में स्थानीय लोगों के लिए बडा आकर्षण होते हैं। लेकिन सबसे बडा आकर्षण आज भी यहां का पशु मेला ही होता है। जिसमें लोग मेवती, नागौरी, गिर जैसे बढिया नस्लों के ऊंटों के अलावा घोडे, गधे और बैल खरीदने आते हैं। बिहार में सोनपुर मेले के बाद पुष्कर मेले को दुनिया का दूसरा सबसे बडा पशुमेला कहा जाता है। लेकिन अगर केवल ऊंटों की खरीद-फरोख्त की बात करें तो पुष्कर मेले को सबसे बडा कैमल फेयर कहा जाता है। यहां लगभग 35 हजार सजे-धजे ऊंट मेले का हिस्सा होते हैं। ऊंटों के झुंड जगह-जगह नजर आते हैं, जबकि कुल मवेशियों की तादाद साठ हजार के लगभग होती है। किसी मेले में इतने सारे पशु और पशुपालक मौजूद हों तो पशुओं के करतब भी अवश्य देखने को मिलेंगे। तभी तो मेले में सैलानियों को ऊंट, घोडों और बैलों की दौड का आयोजन भी देखने को मिलता है। प्रशिक्षित ऊंटों की कुछ और स्पर्धाएं भी उन्हें आकर्षित करती हैं। वैसे पुष्कर मेले में रंग-बिरंगी वेशभूषा में घूमते राजस्थानी लोग भी मेले को अनोखी सुंदरता प्रदान करते हैं। लहंगा-चुनरी के साथ पारंपरिक आभूषण पहने औरतें और चटख रंगों की पगडी पहने, बडी-बडी मूछें धरे पुरुष राजस्थान की संस्कृति का ही एक रंग दर्शाते हैं। विदेशी सैलानी तो राजस्थानी जीवनशैली की इस छवि को अपने कैमरों में कैद करते नहीं थकते।
मेले में घूमते हुए मार्ग के दोनों ओर छोटी-बडी गुमटियों की कतार नजर आती है। इन अस्थायी दुकानों में मोतियों की माला, लाख की चूडियां, पारंपरिक आभूषण, डिजाइनदार जूतियां, चुनरी, छापे की ओढनी, बंधेज के परिधान या रंग-बिरंगी पगडियां देख कर आपका मन भी इन्हें खरीदने को मचल उठेगा। हस्तशिल्प और कपडों की दुकानों से भी यहां काफी कुछ खरीदारी की जा सकती है। पुष्कर मेले की इंद्रधनुषी छटा पर्यटकों को इस तरह प्रभावित करती है कि उन्हें शाम होने का पता ही नहीं चलता।