
पिछले चौदह सालों से उनकी बेटियां बिना मंडप के ही ब्याही जा रही हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के इस गांव का नाम है फतेहाबाद। इलाके में बहती है नारायणी नदी। 1996 में नारायणी के तांडव से ही टूटा था तिरहुत तटबंध। तब नदी की धारा के साथ करोड़ों की संपत्ति के साथ तीन लोग बह गए थे। गुजरते समय के साथ इस बर्बादी को तो लोग भूल चुके हैं, लेकिन विस्थापन से उनका जो नाता जुड़ा, वह अब तक कायम है।
पांच सौ परिवारों में से तीन सौ से अधिक ने तिरहुत तटबंध पर ही झोपड़ी बना ली, जबकि पचास से अधिक परिवार करमबारी गांव में सड़क किनारे तंबू में रात बिताने लगे। कुछ लोगों ने बैजलपुर खुटाहीं में शरण ली। बाद के दिनों में बांध चौड़ीकरण के नाम पर वहां डेरा जमाए लोगों की झोपड़ियां उजाड़ दी गई तो लोग सड़क पर आ गए।
अब इनकी पीड़ा देखिए। बंधुआ मजदूरों जैसी हालत में जीवन-यापन कर रहे ये लोग रात भर अपनी बहू-बेटियों की इज्जत की रखवाली के लिए जगते हैं। 1996 के बाद से अब तक इनकी बेटियां बिना मंडप के ही ब्याही गई हैं। कारण, न इनके पास ऐसी जमीन है, जहां वे मंडप गाड़ सकें, न कोई साजो-सामान कि कोई आयोजन कर सकें। जब कभी शादी हुई तो सबकुछ खुले में सड़क किनारे ही संपन्न हो जाता है। गांव के दबंग उनसे मजदूरी तो करा लेते हैं, लेकिन उचित मेहनताना उन्हें कभी नहीं मिल पाता।
विस्थापन का दर्द झेल रहे दर्जनों लोगों ने बताया कि बाढ़ के समय घटनास्थल पर पहुंचे तत्कालीन डीएम ने मृतक के परिवारों को मुआवजा व विस्थापितों के लिए जमीन मुहैया कराने की घोषणा की थी। तब नेताओं का जत्था भी उन्हें देखने कई बार वहां पहुंचा। सबने केवल वादे किए, किया कुछ भी नहीं।
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