Monday, November 21, 2011

श्री का महात्मय



किसी आध्यात्मिक पुरुष या विशेष व्यक्ति को गरिमा प्रदान करने और सम्मान देने के लिए उसके नाम के आगे श्री लिखने का प्रचलन है। श्री की उत्पत्ति और अस्तित्व के संदर्भ में वेद, पुराण, उपनिषदों और किंवदंतियोंमें अलग-अलग व्याख्या दी गई है। कहीं लक्ष्मी को श्री कहा गया है, तो कहीं अलग-अलग होते हुए एक होने की बात कही गई है। लेकिन श्री को लक्ष्मी, शोभा, सौंदर्य के अर्र्थोमें प्रयुक्त किया जाता है।[आंतरिक सौंदर्य] :विद्वानों का मानना है कि व्यक्तित्व को आंतरिक सौंदर्य, व्यावहारिक तेजस्विता और भौतिक समृद्धि के प्रति प्रयत्नशील रहने के संकेत श्री से प्राप्त होते हैं। आत्मिक और भौतिक प्रगति के संतुलन से ही व्यक्तित्व का चहुंमुखी विकास होता है। श्री को नाम के पहले जोडने में इसी सद्भावना और शुभकामना की अभिव्यंजनाहोती है कि वे श्रीवान्बनें, सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में अग्रसर हों। धर्माचार्योके अनुसार, व्यक्तित्व को समुन्नत, सुविकसित,समृद्ध और कांतिवानबनाने के संपूर्ण तत्व श्री में समाहित हैं। जो इस बारे में सोचते, विचारतेऔर वैसा बनने के लिए तदनुरूप कदम बढाते हैं, वास्तव में वही श्रीमान या श्रीवानकहलाते हैं। [श्री की उत्पत्ति] :शतपथब्राह्मण की एक कथा में श्री की उत्पत्ति का वर्णन है। इस कथा के अनुसार, श्री प्रजापति ब्रह्मा जी के अंतस से आविर्भूत होती हैं। वह अपूर्व सौंदर्य और तेजससे संपन्न हैं। प्रजापति ब्रह्मा उनका अभिनंदन करते हैं और बदले में उन आद्य देवी से सृजन क्षमता का वरदान प्राप्त करते हैं। ऋग्वेद में श्री और लक्ष्मी को एक ही अर्थ में प्रयुक्त माना गया है। तैत्तरीयउपनिषद में श्री का अन्न, जल, गोदुग्धऔर वस्त्र जैसी समृद्धियां प्रदान करने वाली आद्य शक्ति के रूप में उल्लेख मिलता है। गृह सूत्रों में उन्हें उत्पादन की उर्वरा शक्ति माना गया है। यजुर्वेद में श्री और लक्ष्मी को विष्णु की दो पत्नियां कहकर उल्लेख किया गया है-श्रीश्चते लक्ष्मीश्चतेसपत्नयौ।श्रीसूक्तमें भी दोनों को भिन्न मानते हुए अभिन्न उद्देश्य पूरा कर सकने वाली बताया गया है-श्रीश्च लक्ष्मीश्च।इस निरूपण में श्री को तेजस्विता और लक्ष्मी को सम्पदा के अर्थ में लिया गया है। शतपथब्राह्मण में श्री की फलश्रुति की चर्चा करते हुए कहा गया है कि वह जिन दिव्यात्माओंमें निवास करती है, वे तेजोमय हो जाते हैं। अथर्ववेदमें पृथ्वी के अर्थ में श्री का प्रयोग अधिक हुआ है। वेद मंत्रों में धरती माता और मातृभूमि के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति के लिए श्री के उच्चारण का स्पष्ट संकेत है। गोपथब्राह्मण में श्री की चर्चा शोभा या सौंदर्य के रूप में हुई है। श्री सूक्त में इसकी जितनी विशेषताएं बताई गई हैं, उनमें सुंदरता सर्वोपरि है। वाजसनेयीआरण्यक में श्री और लक्ष्मी की उत्पत्ति अलग-अलग बताई गई है, लेकिन बाद में दोनों के एकात्म होने की कथा है। आरण्यक के आधार पर अंतत:श्री और लक्ष्मी एक ही है।[श्री का प्रतीक चित्रण] :चित्र में श्री अर्थात लक्ष्मी कमल पर विराजमान होती हैं। साथ ही, हाथियों द्वारा स्वर्ण कलश से स्वागत करने का चित्रण मिलता है। कमल सौंदर्य का प्रतीक है। गज साहस को दर्शाता है। स्वर्ण वैभव का चिह्न है, जल शांति, शीतलताऔर संतोष का द्योतक है। इन विशेषताओं के समुच्चय को हम श्री या लक्ष्मी कह सकते हैं। कन्याओं को गृहलक्ष्मीकहने की प्रथा है। यह व्यर्थ नहीं है। वास्तव में, उनमें लक्ष्मी तत्व की ज्यादातर विशेषताएं मौजूद होती हैं। ऐसे में विवाहोपरांतउनका गृहलक्ष्मीकहलाना उचित है। पुराणों में श्री की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई है। यहां पर इसका भाव प्रबल पुरुषार्थ का है। कल्पसूत्रकी एक कथा में भगवान महावीर की माता त्रिशलाने दिव्य स्वप्न में श्री के दर्शन किए थे। इस दिव्य दर्शन के बाद ही महावीर के जन्म लेने की कथा है।



Friday, June 17, 2011

विदाई के समय तिलक क्यों लगाते हैं?




हिन्दू धर्म में किसी भी तरह का पूजन करते समय मस्तक पर तिलक जरूर लगाया जाता है। माना जाता है कि बिना तिलक लगाए पूजा करने पर पूजा का पूरा फल नहीं मिलता। लेकिन सिर्फ पूजन के समय ही तिलक नहीं किया जाता है बल्कि तिलक हमारी भारतीय संस्कृ़ति का भी एक अभिन्न अंग है।




इसीलिए हमारे यहां जब किसी का स्वागत किया जाता है , शादी ब्याह में कोई रस्म निभाई जाती है या किसी कि विदाई की जाती है तो भी मेहमानों को तिलक लगाकर ही विदा किया जाता है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि विदाई के समय तिलक क्यों लगाया जाता है? दरअसल तिलक को हमारी सभ्यता में सम्मान का प्रतीक माना गया है।



इसके अलावा इसे विजय का प्रतीक भी माना जाता है। इसीलिए प्राचीन समय से ही जब हमारे यहां कोई युद्ध के लिए जाता था। तब उसे तिलक लगाकर ही विदा किया जाता था ताकि जब वो लौटे तो विजय प्राप्त करके लौटे। ऐसे में तिलक करने वाले की सकारात्मक भावना या दुआएं विदाई लेने वाले के साथ रहती है और उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सहायता करती है। साथ ही तिलक लगाने से एकाग्रता और आत्मविश्वास बढ़ता है क्योंकि तिलक लगाने से आज्ञा चक्र जागृत होता है। साथ ही मस्तिष्क को शीतलता भी मिलती है।





Thursday, April 7, 2011

घूंघट की परंपरा कब से और क्यों?




घूंघट भारतीय परंपरा में अनुशासन और सम्मान का प्रतीक माना जाता है। घर की बहुओं को परिवार के बड़ों के आगे घूंघट निकालना होता है, ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह अनिवार्य है ही साथ ही कई महानगरीय परिवारों में भी ऐसा चलन है। सवाल यह है कि भारतीय परंपरा में घूंघट कब और कैसे आया? क्या सनातन समय से यह परंपरा चली आ रही है या फिर कालांतर में यह प्रचलन बढ़ा है?वास्तव में घूंघट हिंदुस्तान पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारियों की ही देन है। पहले राज्यों में आपसी लड़ाइयां और फिर मुगलों का हमला।


इन दो कारणों ने भारत में पूजनीय दर्जा पाने वाले महिला वर्ग को पर्दे के पीछे कर दिया। भारतीय महिलाओं की सुंदरता से प्रभावित आक्रमणकारी अत्याचारी होते जा रहे थे। महिलाओं के साथ बलात्कार और अपहरण की घटनाएं बढऩे लगीं तो महिलाओं की सुंदरता को छिपाने के लिए घूंघट का इजाद हो गया। पहले यह आक्रमणकारियों से बचने के लिए था, फिर परिवार में बड़ों के सम्मान के लिए और धीरे से इसने अनिवार्यता का रूप धारण कर लिया। आक्रमणकारी चले गए, देश आजाद हो गया लेकिन महिलाओं के चेहरों पर पर्दा अब भी कायम है।






Wednesday, March 23, 2011

मरने की बाद अस्थियों को नदी में ही प्रवाहित करें, ऐसा क्यों?






हिंदू शास्त्रों के अनुसार जन्म-मृत्यु एक ऐसा चक्र है जो हमेशा चलता रहता है। जीवन है तो मृत्यु आएगी ही। जन्म से मृत्यु तक हमें कई कार्य करने होते हैं। प्राचीन समय से ही ऋषि-मुनियों और विद्वानों ने कई परंपराएं बनाई गई हैं जिनका पालन करना काफी हद तक अनिवार्य बताया गया है। हमारे जीवन के साथ-साथ मृत्यु के बाद की भी हमसे जुड़ी कुछ परंपराएं होती हैं जिनका पालन हमारे परिवार वालों को करना पड़ता है।


ऐसी ही एक परंपरा है मरे हुए व्यक्ति की अस्थियां नदी में प्रवाहित करने की क्योंकि हमारे हिन्दू धर्म में मरने के बाद व्यक्ति का अंतिमसंस्कार अग्रि में किया जाता है। उसके बाद अस्थियों को नदी में प्रवाहित किया जाता है। इसका धार्मिक कारण तो यह है कि हमारे शास्त्रों में माना गया है कि अस्थियों को जल में प्रवाहित करने से मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलती है क्योंकि हमारा यह शरीर पंच तत्वों से बना माना गया है और अग्रि में दाह संस्कार होने के बाद बाकि चार तत्व में तो हमारा शरीर परिवर्तित हो ही जाता है साथ ही पांचवे तत्व जल मेंअस्थियां प्रवाहित करने के बाद शरीर पंच तत्व में विलीन हो जाता है।

जबकि पुराने समय में यह परंपरा अपनाए जाने का वैज्ञानिक कारण यह था कि अस्थियों में फास्फोरस बहुत ज्यादा मात्रा में होता है।जो खाद के रूप में भूमि को उपजाऊ बनाने में सहायक है। साथ ही नदियों को हमारे देश में बहुत पवित्र माना जाता है और हमारे देश का एक बड़ा भू-भाग नदी के रूप में है और अधिकांश भागों में नदी के जल से ही सिंचाई होती है। इसलिए जल में अस्थियां प्रवाहित करने से कृषि में फायदा होगा इसी दृष्टिकोण से इस परंपरा की शुरूआत की गई।




Thursday, March 17, 2011

बुरी नजर के लिए नींबु मिर्च क्यों?

दुकानों और बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर व्यापारी नींबू-मिर्च टांगकर रखते हैं। ऐसा केवल अपने व्यापार को बुरी नजर से बचाने के लिए किया जाता है। सवाल यह है कि नींबू और मिर्च में ऐसा क्या होता है जो नजर से बचाता है? दरअसल इसके दो कारण प्रमुख हैं, एक तंत्र-मंत्र से जुड़ा है और दूसरा मनोविज्ञान से। माना जाता है कि नींबू, तरबूज, सफेद कद्दू और मिर्च का तंत्र और टोटकों में विशेष उपयोग किया जाता है। नींबू का उपयोग अमूमन बुरी नजर से संबंधित मामलों में ही किया जाता है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण है इनका स्वाद। नींबू खट्टा और मिर्च तीखी होती है, दोनों का यह गुण व्यक्ति की एकाग्रता और ध्यान को तोडऩे में सहायक हैं।












यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि हम इमली, नींबू जैसी चीजों को देखते हैं तो स्वत: ही इनके स्वाद का अहसास हमें अपनी जुबान पर होने लगता है, जिससे हमारा ध्यान अन्य चीजों से हटकर केवल इन्हीं पर आकर टिक जाता है। किसी की नजर तभी किसी दुकान या बच्चे पर लगती है जब वह एकाग्र होकर एकटक उसे ही देखे, नींबू-मिर्च टांगने से देखने वाले का ध्यान इन पर टिकता है और उसकी एकाग्रता भंग हो जाती है। ऐसे में व्यापार पर बुरी नजर का असर नहीं होता है।



खड़े होकर खाना क्यों नहीं खाना चाहिए!






भोजन से ही हमारे शरीर को कार्य करने की ऊर्जा मिलती है। हमारे देश में हर छोटे से छोटे या बड़े से बड़े कार्य से जुड़ी कुछ परंपराए बनाई गई हैं।

वैसे ही भोजन करने से जुड़ी हुई भी कुछ मान्यताएं हैं। भोजन हमारे जीवन की सबसे आवश्यक जरुरतों में से एक है। खाना ही हमारे शरीर को जीने की शक्ति प्रदान करता है।हमारे पूर्वजो ने जो भी परंपरा बनाई थी उसके पीछे कोई गहरी सोच थी।

ऐसी ही एक परंपरा है खड़े होकर या कुर्सी पर बैठकर भोजन ना करने की क्योंकि ऐसा माना जाता है कि खड़े होकर भोजन करने से कब्ज की समस्या होती है। इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि जब हम खड़े होकर भोजन करते हैं तो उस समय हमारी आंते सिकुड़ जाती हैं। और भोजन ठीक से नहीं पच पाता है।
इसीलिए जमीन पर सुखासन में बैठकर खाना खाने की परंपरा बनाई गई। हम जमीन पर सुखासन अवस्था में बैठकर खाने से कई स्वास्थ्य संबंधी लाभ प्राप्त कर शरीर को ऊर्जावान और स्फूर्तिवान बना सकते हैं।

जमीन पर बैठकर खाना खाते समय हम एक विशेष योगासन की अवस्था में बैठते हैं, जिसे सुखासन कहा जाता है। सुखासन पद्मासन का एक रूप है। सुखासन से स्वास्थ्य संबंधी वे सभी लाभ प्राप्त होते हैं जो पद्मासन से प्राप्त होते हैं।बैठकर खाना खाने से हम अच्छे से खाना खा सकते हैं। इस आसन से मन की एकाग्रता बढ़ती है। जबकि इसके विपरित खड़े होकर भोजन करने से तो मन एकाग्र नहीं रहता है।इस तरह खाना खाने से मोटापा, अपच, कब्ज, एसीडीटी आदि पेट संबंधी बीमारियों होती हैं।





घर के मुख्यद्वार पर क्यों लगाते हैं शुभ चिन्ह?







किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में घर के मुख्यद्वार पर या बाहर की दीवार स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। स्वस्तिक श्रीगणेश का ही प्रतीक स्वरूप है। किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं, अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो।




वास्तु शास्त्र के अनुसार घर के मुख्य द्वार पर श्रीगणेश का चित्र या स्वस्तिक बनाने से घर में हमेशा सुख-समृद्धि बनी रहती है। ऐसे घर में हमेशा गणेशजी कृपा रहती है और धन-धान्य की कमी नहीं होती। साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है। स्वस्तिक का चिन्ह वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है, इसे घर के बाहर भी बनाया जाता है जिससे स्वस्तिक के प्रभाव से हमारे घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है। इसी वजह से घर के मुख्य द्वार पर श्रीगणेश का छोटा चित्र लगाएं या स्वस्तिक या अपने धर्म के अनुसार कोई शुभ या मंगल चिन्ह लगाएं।










Friday, March 11, 2011

पत्थर जहां मन्नत मांगने से उतरता है ज्वर

 ज्वर होने पर अक्सर लोग डाक्टर व हकीमों के पास जाकर मोटी रकम चुका कर उपचार करवाते हैं। मगर ऊधमपुर जिले के टिकरी इलाके में पडता लाडा लाडी दा टक्क नाम से प्रसिद्ध दरयाबड में एक ऐसा पत्थर है, जिसके चारों तरफ कच्चा धागा (सूत) बांधकर मन्नत मांगने से पुराने से पुराना बुखार ठीक हो जाता है। मान्यता है कि यह पत्थर एक दुल्हन की डोली है, जिसने अपने पति द्वारा एक ग्वाले से मजाक में लगाई शर्त को पूरा करने के लिए अपने प्राण त्यागकर डोली व दहेज सहित शिला रूप ले लिया था।




टिकरी से दरयाबड करीब तीन किलोमीटर दूरी पर है। रास्ता टिकरी हायर सेकेंडरी स्कूल के साथ होकर गुजरता है, जो कच्चा है। वाहन से करीब आधे रास्ते तक पहुंचा जा सकता है। आगे का आधा रास्ता ऊबड-खाबड व पहाडी होने के कारण पैदल ही तय करना पडता है। यहां की ऊंचाई से चारों तरफ मनोरम दृश्य नजर आते हैं। परंतु, इस जगह की सुंदरता इसकी विशेषता नहीं, बल्कि यहां पर शिला रूप में मौजूद दुल्हन की डोली इसे खास बनाती है।

किंवदंती के मुताबिक एक बारात इस इलाके से गुजर रही थी। दुल्हन को तेज प्यास लगने पर उसने पानी मांगा। दरयाबड से पानी की बावली करीब पौने किलोमीटर दूर पहाडी के नीचे थी। थके हुए दूल्हे व बारातियों में वहां से पानी लाने की हिम्मत न थी। इसी दौरान दूल्हे की नजर वहां बकरियां चरा रहे एक ग्वाले पर पडी, जो चोरी-छुपे दुल्हन को देख रहा था। उसने ग्वाले को बेवकूफ बनाकर पानी मंगवाने के लिए उसे अपने पास बुलाया और कहा कि यदि वह एक ही सांस में नीचे से पानी लेकर ऊपर आयेगा तो दुल्हन उसकी हो जाएगी।

सीधा-साधा ग्वाला उसकी बातों में आ गया। दूल्हे ने पानी लाने के लिए ग्वाले को दहेज के सामान में से एक गडवा निकाल कर दिया। तय शर्त के मुताबिक ग्वाला एक ही सांस में पानी लेकर ऊपर तो पहुंच गया, लेकिन पानी का गडवा दूल्हे को सौंपते ही उसके प्राण निकल गए।

दुल्हन को पानी पिलाने के बाद जब बारात चलने लगी, तो पति ने सारी बात अपनी पत्‍‌नी को बताई। जिसके मुताबिक अब वह ग्वाले की पत्‍‌नी बन चुकी है। इसके बाद दुल्हन ने अपने प्राण त्याग दिए। उसके सती होते ही दुल्हन, ग्वाला व डोली शिला में तबदील हो गए। साथ ही दुल्हन का सारा दहेज भी पत्थर में बदल गया।


इस घटना के बाद से ही दरायबड का नाम लाडा लाडी दा टक्क (दूल्हा-दुल्हन का टीला) पडा। यहां पर डोली जैसा एक पत्थर है, जिसके ऊपर लंबा गोल पत्थर है। इसे स्थानीय लोग दुल्हन बताते हैं। इसके चारों तरफ अक्सर सफेद रंग का सूत बंधा नजर आ जाता है। जो बुखार ठीक होने के लिए मांगी गई मन्नत की निशानी है।

 इस जगह पर सती हुई दुल्हन का वास माना जाता है। वैसे तो यहां पर मांगी गई हर मन्नत पूरी हो जाती है, लेकिन बुखार के मामले में यह जगह सबकी आजमाई हुई है। इसके लिए सूत का धागा लेकर पहले एक सिरे से बुखार पीडित व्यक्ति के पांव से शरीर तक का नाप लिया जाता है। फिर नाप वाले सिले से डोली के चारों तरफ सूत लपेट कर मन्नत मांगी जाती है। धागा बांधने के अगले दो दिन के भीतर बुखार पीडित ठीक हो जाता है।  इस जगह पर किसी तरह का अपवित्र काम करने वाले को दु:ख और परेशानियां झेलनी पडती है। दुल्हन का पत्थर रूपी दहेज बिना किसी चीज से जोडे पत्थरों को एक दूसरे पर टिका कर टीला सा बना है। स्थानीय लोग इसके आज तक कभी न गिरने का दावा भी करते हैं।




Wednesday, March 9, 2011

बकरी ने जना हाथी की शक्ल का बच्चा

 
हावड़ा। सुनने और पढ़ने में अटपटा और आश्चर्य जरुर लगेगा कि कहां बकरी और कहां हाथी। लेकिन कुदरत के करिश्मे को कौन जानता है। कुदरत का कारनामा बेमिसाल है और जवाब भी किसी के पास नही होता।
बुधवार को डोमजुर थाना के बालूहाटी स्थित घोषपाड़ा में उत्तम हालदार की बकरी ने हाथी की शक्ल के शावक को जन्म दिया। उसका आकार हाथी से मिलता जुलता था तथा सूंढ़ व दांत भी निकले हुए थे। हालांकि जन्म लेने के कुछ देर बाद ही वह मर गया।

बकरी के गर्भ से हाथी के बच्चे की शक्ल में बच्चे को जन्म लेने की खबर से इलाके में सनसनी फैल गई। काफी दूर दूर से लोग मृत बच्चे को देखने के लिये घोषपाड़ा में आने लगे। पूरे दिन हाथी की शक्ल में उत्पन्न बकरी के बच्चे को देखने के लिये लोगों की भीड़ लगी रही । यहां पहुंचने वाले अधिकांश लोग इसे भगवान का चमत्कार मान रहे हैं। ग्राम के एक वृद्ध व्यक्ति ने बताया कि उसने अपनी जिंदगी में ना कभी इस प्रकार की घटना सुना था और ना देखा था। कई लोग इसे गणेश भगवान का आगमन समझ कर पूजा पाठ करने की बात करने लगे। उसके मालिक उत्तम से पूछताछ करने पर उसने बताया कि बकरी ने हू ब हू हाथी की शक्ल के बच्चे को जन्म दिया है।

Friday, March 4, 2011

SARDHANA


SARDHANA
KI
MATA MARIYAM




                                                     SARDHANA'S CHARCH
                                             KIRPAOO KI MATA


                                                    CHARCH KA MUKHS BHAG





                                                 KIRPAO KI MATA





                                            BEGUM SAMRU KA PURANA MHAL
         


                                              BEGAM  KA NAYA MAHAL (NOW ST.CHARLES INTER COLLEGE)
सरधना का गिरजा घर

माता मरियम "किर्पाओ की माता"

JAB

KAKAK