Wednesday, January 28, 2009

आस्था का उत्सव पुष्कर मेला





राजस्थान को महलों, किलों और हवेलियों की धरती होने के साथ-साथ मेलों और उत्सवों की धरती होने का गौरव भी हासिल है। मरुभूमि के इस अंचल को प्रकृति ने भले ही चटख रंगों से नहीं संवारा, लेकिन मरुवासियों ने इसे अपनी संस्कृति के रंगों से ऐसा सजा लिया है कि दुनिया देखते नहीं थकती है। इन रंगों की छटा यहां के मेलों और उत्सवों में नजर आती है। लोक के ऐसे ही रंगों से सजा एक शानदार आयोजन है पुष्कर मेला। जैसा कि नाम से ही विदित होता है, यह मेला राजस्थान की मंदिर नगरी पुष्कर से जुडा है। वैसे तो वर्ष भर पुष्कर में तीर्थयात्रियों और पर्यटकों का आना-जाना बना रहता है। लेकिन पुष्कर मेले के दौरान इस नगरी में आस्था और उल्लास का अनोखा संगम देखा जाता है। पुष्कर को इस क्षेत्र में तीर्थराज कहा जाता है और पुष्कर मेला राजस्थान का सबसे बडा मेला माना जाता है। पुष्कर मेले की प्रसिद्धि का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि ऐतिहासिक धरोहरों के रूप में ताजमहल का जो दर्जा विदेशी सैलानियों की नजर में है, ठीक वही महत्व त्योहारों से जुडे पारंपरिक मेलों में पुष्कर मेले का है।

पुष्प से बना पुष्कर

पुष्कर को इस क्षेत्र में तीर्थराज कहे जाने का गौरव इसलिए प्राप्त है क्योंकि यहां समूचे ब्रह्मांड केरचयिता माने जाने वाले ब्रह्मा जी का निवास है। पुष्कर के महत्व का वर्णन पद्मपुराण में मिलता है। इसके अनुसार एक समय ब्रह्मा जी को यज्ञ करना था। उसके लिए उपयुक्त स्थान का चयन करने के लिए उन्होंने धरा पर अपने हाथ से एक कमल पुष्प गिराया। वह पुष्प अरावली पहाडियों के मध्य गिरा और लुढकते हुए दो स्थानों को स्पर्श करने के बाद तीसरे स्थान पर ठहर गया। जिन तीन स्थानों को पुष्प ने धरा को स्पर्श किया, वहां जलधारा फूट पडी और पवित्र सरोवर बन गए। सरोवरों की रचना एक पुष्प से हुई, इसलिए इन्हें पुष्कर कहा गया। प्रथम सरोवर कनिष्ठ पुष्कर, द्वितीय सरोवर मध्यम पुष्कर कहलाया। जहां पुष्प ने विराम लिया वहां एक सरोवर बना, जिसे ज्येष्ठ पुष्कर कहा गया। ज्येष्ठ पुष्कर ही आज पुष्कर के नाम से विख्यात है।

कालांतर में वह प्राचीन मंदिर आक्रांताओं द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था। सन् 1809 में सिंधिया के एक मंत्री गोकुल चंद पारेख ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। वैसे अब अन्य कई स्थानों पर मंदिरों में ब्रह्मा जी की एकल प्रतिमा प्रतिष्ठित की जाने लगी है, अन्यथा उनकी प्रतिमा हर स्थान पर त्रिमूर्ति के रूप में ही विद्यमान होती थी। ब्रह्मा मंदिर के अलावा यहां महादेव मंदिर, वाराह मंदिर, रंग जी मंदिर और वैकुंठ मंदिर प्रमुख हैं। पुष्कर में मंदिरों की कुल संख्या लगभग चार सौ है। इसीलिए इसे मंदिर नगरी भी कहा जाताहै।


और लगने लगा मेला

समय के साथ श्रद्धालुओं की संख्या बढती गई। तब न जाने कब आस्था के साथ आमोद-प्रमोद और अनुरंजन के भाव जुड गए और पर्व ने एक लोकोत्सव अर्थात मेले का रूप ले लिया। पहले वस्तु विनिमय की परंपरा थी। इसलिए यह मेला जीवन की आवश्यक वस्तुओं के विनिमय का बहुत बडा केंद्र भी बन गया। किसानों के जीवन में मवेशियों का विशेष स्थान होता है। अत: यहां मवेशियों का क्रय-विक्रय भी शुरू हो गया। उसके साथ ही मेले का आकार बढता गया। आज भी इस मेले ने अपना सदियों पुराना विशिष्ट ग्रामीण और बहुरंगी चरित्र बनाए रखा है। इससे प्रभावित हो लाखों की संख्या में लोग यहां आते हैं। पुष्कर नगरी में हर वर्ष कार्तिक माह में भव्य मेला लगता है। इस विश्वप्रसिद्ध मेले में पांच लाख से अधिक श्रद्धालु, ग्रामवासी, पशुपालक और देश-विदेश के सैलानी शिरकत करते हैं। पर्यटकों के बढते आकर्षण को देख राज्य के पर्यटन विभाग ने इसके साथ कई रोचक गतिविधियां भी जोड दी हैं। वैसे तो यह मेला पूर्णिमा से एक माह पूर्व ही भरना शुरू हो जाता है। लेकिन प्रमुख गतिविधियां एकादशी से पूर्णिमा तक होती हैं। मेला स्थल के व्यापक विस्तार में हजारों मवेशी, स्थानीय व्यापारियों की सैकडों गुमटियां, ऊंटगाडियां और डेरा डाले राजस्थानी परिवारों के पारंपरिक वेशभूषा में घूमते हजारों स्त्री-पुरुष मेले के दृश्य का खास हिस्सा होतहैं।


पशुओं के करतब

किसी भी मेले को फोटोजेनिक स्वरूप प्रदान करने वाले विशालकाय चक्करदार झूले, लकडी के हिंडोले, चरखियों आदि का इस मेले में होना लाजिमी है। काला जादू के शो और मौत का कुआं जैसे करतब दिखाने वाले घुमंतू सर्कस भी पुष्कर मेले में स्थानीय लोगों के लिए बडा आकर्षण होते हैं। लेकिन सबसे बडा आकर्षण आज भी यहां का पशु मेला ही होता है। जिसमें लोग मेवती, नागौरी, गिर जैसे बढिया नस्लों के ऊंटों के अलावा घोडे, गधे और बैल खरीदने आते हैं। बिहार में सोनपुर मेले के बाद पुष्कर मेले को दुनिया का दूसरा सबसे बडा पशुमेला कहा जाता है। लेकिन अगर केवल ऊंटों की खरीद-फरोख्त की बात करें तो पुष्कर मेले को सबसे बडा कैमल फेयर कहा जाता है। यहां लगभग 35 हजार सजे-धजे ऊंट मेले का हिस्सा होते हैं। ऊंटों के झुंड जगह-जगह नजर आते हैं, जबकि कुल मवेशियों की तादाद साठ हजार के लगभग होती है। किसी मेले में इतने सारे पशु और पशुपालक मौजूद हों तो पशुओं के करतब भी अवश्य देखने को मिलेंगे। तभी तो मेले में सैलानियों को ऊंट, घोडों और बैलों की दौड का आयोजन भी देखने को मिलता है। प्रशिक्षित ऊंटों की कुछ और स्पर्धाएं भी उन्हें आकर्षित करती हैं। वैसे पुष्कर मेले में रंग-बिरंगी वेशभूषा में घूमते राजस्थानी लोग भी मेले को अनोखी सुंदरता प्रदान करते हैं। लहंगा-चुनरी के साथ पारंपरिक आभूषण पहने औरतें और चटख रंगों की पगडी पहने, बडी-बडी मूछें धरे पुरुष राजस्थान की संस्कृति का ही एक रंग दर्शाते हैं। विदेशी सैलानी तो राजस्थानी जीवनशैली की इस छवि को अपने कैमरों में कैद करते नहीं थकते।

मेले में घूमते हुए मार्ग के दोनों ओर छोटी-बडी गुमटियों की कतार नजर आती है। इन अस्थायी दुकानों में मोतियों की माला, लाख की चूडियां, पारंपरिक आभूषण, डिजाइनदार जूतियां, चुनरी, छापे की ओढनी, बंधेज के परिधान या रंग-बिरंगी पगडियां देख कर आपका मन भी इन्हें खरीदने को मचल उठेगा। हस्तशिल्प और कपडों की दुकानों से भी यहां काफी कुछ खरीदारी की जा सकती है। पुष्कर मेले की इंद्रधनुषी छटा पर्यटकों को इस तरह प्रभावित करती है कि उन्हें शाम होने का पता ही नहीं चलता।

Thursday, January 22, 2009

मर कर भी दूसरों की प्रीत बन गई प्रीति


प्रीति जैसा नाम वैसा ही स्वभाव, हर किसी की दुलारी थी वह बच्ची। लेकिन कोई नहीं जानता था किशोरावस्था में ही वह इस दुनिया से चल बसेगी।

जिस मां ने उसे बड़े जतन व प्यार से पाला था, उस मां ने ही प्रीति को दूसरे की प्रीत बनाने के लिए अपने कलेजे पर पत्थर रख उसके अंगदान करने का निर्णय लिया। लेकिन अंगदान तो संभव नहीं हो सका, हां प्रीति की मौत के बाद भी उसकी आंखें दुनिया को जरूर देख सकेगी।

भले ही प्रीति का परिवार मजदूरी कर अपना जीवनयापन कर रहा है, लेकिन परिवार के संस्कार इस कदर हैं कि हर कोई इस परिवार की सराहना किए बिना नहीं रह पा रहा है।

धनकोट निवासी राम अवतार मजदूरी कर अपने चार बच्चों का लालन-पालन कर रहा है। धार्मिक संस्थाओं से जुड़े रहने के कारण उनके विचार एवं शिक्षा चंद बातों में ही झलक जाती है। राम अवतार की 16 वर्षीय बच्ची की मौत मंगलवार की रात को अचानक हो गई। प्रीति की मौत से उसके घर ही नहीं बल्कि आसपास में मातम छा गया। घर के सभी सदस्यों ने मृत्युपरांत अंगदान का निर्णय लिया है। लेकिन प्रीति की मौत घर पर होने के कारण एवं शोक में कुछ समय बीत जाने के कारण यह संभव नहीं हो सका। लेकिन मां ने जिद ठान ली, कम से कम नेत्रदान तो होना ही चाहिए। पिता द्वारा वाईपी महेन्द्रू निरामया आई बैंक को खबर करने पर रात के ग्यारह बजे डा.राकेश मदान की टीम ने जाकर प्रीति का नेत्रदान लिया।

प्रीति के घर ही नहीं बल्कि आसपास के लोगों का भी कहना था कि प्रीति मर कर भी दूसरों की प्रीत बन गई।

Monday, January 19, 2009

मुंबई की लाइफलाइन डिब्बावाले





जरा सोचिए कि भीड-भाड और धक्का-मुक्की वाली ट्रैफिक में अपने साथ टिफिन बॉक्स लेकर चलने के बोझ से अगर आपको मुक्ति मिल जाए और साथ ही ठीक लंच टाइम पर ऑफिस में ही घर का बना ताजा और स्वादिष्ट खाना भी मिल जाए तो कितना अच्छा हो। बमुंई शहर के अति व्यस्त लोगों की जिंदगी को थोडा सुकून देने में यहां के डिब्बावालों का बडा ही महत्वपूर्ण योगदान है।

व्यस्तता का बेहतर विकल्प

मुंबई में लोग सुबह बहुत जल्दी अपने काम पर निकल जाते हैं। उस समय उनके लिए अपने साथ टिफिन ले जाना संभव नहीं होता। यहां की लोकल ट्रेनों में सुबह और शाम के समय इतनी ज्यादा भीड होती है कि व्यक्ति के लिए ट्रेन में चढ पाना भी बहुत मुश्किल होता है। ऐसी स्थिति में टिफिन का डिब्बा साथ लेकर चलना तो संभव ही नहीं है। हमेशा यह डर बना रहता है कि कहीं खाने का डिब्बा हाथ से छूट न जाए। मुंबई के डिब्बावाले उन्हें इस मुश्किल से निजात दिलाते हैं और उन्हें उनके कार्यस्थल पर घर का ताजा और स्वादिष्ट खाना उपलब्ध करवाते हैं।

इनकी वजह से खाने वाले तो खुश रहते ही हैं। साथ ही गृहिणियों को भी इस चिंता से मुक्ति मिल जाती है कि घर का बना खाना कहीं दोपहर तक खराब तो नहीं हो गया होगा, आज पति टिफिन ले जाना भूल गए तो कैंटीन में पता नहीं कैसा खाना मिला होगा, पता नहीं खाना खाया भी होगा या नहीं आदि। चाहे बारिश आए या तूफान, मुंबई के डिब्बावाले हर हाल में अपने ग्राहकों को वर्षो से सही समय पर घर का खाना पहुंचाते आ रहे हैं।

कैसे हुई शुरुआत

मुंबई डिब्बावाला संस्था के अध्यक्ष रघुनाथ मेदगे का कहना है कि हमारी संस्था-नूतन टिफिन कंपनी का आरंभ हुआ था-1890 में। उस वक्त मुंबई शहर का तेजी से विकास हो रहा था। काम पर जाने वाले लोग जब सुबह घर से निकलते थे, तब घर पर उतनी जल्दी टिफिन तैयार करने में गृहिणियों को असुविधा होती थी क्योंकि उस जमाने में एलपीजी गैस, मिक्सर-ब्लेंडर, प्रेशर कुकर, फ्रिज जैसे रसोई के कामों को आसान बनाने वाले उपकरण मौजूद नहीं थे। अंगीठी पर खाना बनने में काफी समय लगता था। मजबूरी में लोगों को दोपहर का भोजन बाहर करना पडता था। इसी असुविधा को दूर करने के लिए मेरे मामा महादेव हावजी बच्चे ने मात्र 100 ग्राहकों को डिब्बा पहुंचाने की सुविधा देकर इस सेवा की शुरुआत की थी। उनके बाद मेरे पिताजी डी.आर. मेदगे ने इस संस्था का काम आगे बढाया। मेरे पिताजी 25 वर्षो तक नूतन टिफिन कंपनी के अध्यक्ष थे। 1980 में उनके निधन के बाद से मैं इस संस्था का कामकाज देख रहा हूं। वेस्टर्न रेलवे, सेंट्रल रेलवे और हार्बर रेलवे पर हमारे पांच हजार डिब्बावाले कार्यरत हैं, जो दिन भर में दो लाख मुंबईवासियों को उनके घर से ऑफिस तकडिब्बे पहुंचाते हैं। लंच टाइम के बाद टिफिन बॉक्स को कार्यालयों से एकत्र करके घर तक पहुंचाते हैं। हम सिर्फ सरकारी अवकाश और रविवार के दिन छुट्टी पर होते हैं। पूरे मुंबई शहर के अलग-अलग छह क्षेत्रों (दादर, ग्रैंड रोड, अंधेरी, मुलुंड, चेंबूर और घाटकोपर) में हमारे ऑफिस हैं।

सादगी का पर्याय

लोगों के घरों से खाने का डिब्बा एकत्र करके उन्हें उनके कार्यस्थल तक पहुंचाने की इनकी कार्यपद्धति अत्यंत व्यवस्थित है। मुंबई के सारे डिब्बेवाले वारकरी समुदाय के हैं, जिनकी बोलचाल की भाषा मराठी है। सफेद कुर्ता-पायजामा, गले में रुद्राक्ष की माला, सिर पर गांधी टोपी और पैरों में कोल्हापुरी चप्पल। इसी लिबास में सभी डिब्बावाले नजर आते हैं। इनका यह पारंपरिक पहनावा अघोषित यूनिफॉर्म बन गया है। विट्ठल भगवान में आस्था रखने वाले इन सीधे-सादे कर्मठ लोगों के बारे में जानकर आपको आश्चर्य होगा। ज्यादातर डिब्बावाले मात्र साक्षर होते हैं और ये सिर्फअपनी मातृभाषा मराठी में थोडा-बहुत पढ-लिख सकते हैं। फिर भी ये अपनी नेकी, ईमानदारी और कामकाज के सुव्यवस्थित तरीके से सभी को अचंभित कर देते हैं। ये अपना काम कितनी निष्ठा से करते हैं, इसका अंदाजा इस छोटे से प्रसंग से लगाया जा सकता है कि जब प्रिंस चा‌र्ल्स ने इन लोगों से मिलने की इच्छा जाहिर की तो इन लोगों ने उन्हें दोपहर के बाद भीड भरे चर्चगेट स्टेशन पर मिलने का समय दिया ताकि इससे डिब्बा पहुंचाने के काम में किसी तरह की देर न हो। मुंबई के ये डिब्बावाले दुनिया भर में सर्वश्रेष्ठ मैनेजमेंट गुरु के नाम से मशहूर हो चुके हैं और इन पर बीबीसी जैसी संस्थाओं ने डॉक्यूमेंट्री फिल्में तक बनाई हैं।

आमंत्रण प्रिंस चा‌र्ल्स का

इंग्लैड के राजकुमार प्रिंस चा‌र्ल्स जब भारत आए थे तो वह मुंबई के डिब्बावालों की योजनाबद्धकार्यशैली से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने देश में मैनेजमेंट का पाठ पढाने के लिए इन्हें आमंत्रित किया। इतना ही नहीं, उन्हें महारानी एलिजाबेथ की ओर से प्रिंस की शादी में भी सादर आमंत्रित किया गया। इस राजसी शादी में शरीक होने वाले देश-विदेश के 1500 अतिथियों में मुंबई के सीधे-सादे डिब्बावालों को आमंत्रित किया जाना उनके लिए वाकई गर्व की बात थी।

उस अविस्मरणीय प्रसंग को याद करते हुए रघुनाथ भावुक हो उठते हैं, 8 अप्रैल 2005 को कैमिला पार्कर से प्रिंस चा‌र्ल्स की शादी थी। हमें भी आमंत्रित किया गया था। हमारी महीने की आमदनी मात्र 5 हजार रुपये होती है। इतने पैसे में हम आम लोग रानी साहिबा के लिए क्या तोहफा ले जाएं, हमारी समझ में नहीं आ रहा था? लेकिन लोगों के बीच हमारी इतनी अच्छी साख बन गई थी कि जब उन्हें यह खबर मिली कि हम प्रिंस की शादी में जा रहे हैं, तो हमारी मदद में कई लोगों और संस्थाओं ने बढ-चढकर हिस्सा लिया। किसी ने प्रिंस को भेंट करने के लिए पगडी दी तो किसी ने रानी के लिए शालू दिया (कीमती मराठी साडी, जिसे पारंपरिक रूप से शादी के वक्त यहां दुलहन पहनती है)। फिर हमने मिठाइयां खरीदीं और उनसे मिलने चल पडे।

इंग्लैंड पहुंचने के बाद शाही अंदाज में हमारी आवभगत की गई। चूंकि हमें अंग्रेजी नहीं आती थी इसलिए जयपुर घराने की महारानी पद्मिनी देवी हमारेसाथ दुभाषिए की भूमिका निभा रही थीं और प्रिंस चा‌र्ल्स को उन्होंने हमारी कार्यशैली के बारे में विस्तार से बताया।

वक्त के पाबंद

हर दिन मुंबईवासियों को 2 लाख टिफिन पहुंचाते हैं-महज पांच हजार डिब्बावाले, वह भी नाममात्र के पैसे लेकर। महीने के मात्र 250 से 300 रुपये लेकर डिब्बावाले अपनी सेवा उपलब्ध करवाते हैं। यह भी एक आश्चर्य की बात है कि पिछले 150 वर्षो से चलने वाली यह सेवा आज तक कभी भी बाधित नहीं हुई है। चाहे बारिश हो या तूफान, इनकी सेवा में कभी कोई कोताही नहीं होती। ये अपना डिब्बा हमेशा लंच टाइम से थोडी देर पहले ही पहुंचा देते हैं। खाने के डिब्बे लोकल ट्रेनों से गंतव्य स्थान तक ले जाने के लिए ये ट्रेन से उतरने के बाद साइकिल या हाथगाडी का इस्तेमाल वर्षो से करते आ रहे हैं। लेकिन मुंबई की इतनी भीड भरी ट्रैफिक के बावजूद इनके काम में कभी देर नहीं होती।

मजबूत टीम भावना

मुंबई के डिब्बावालों की कार्यशैली भी अनूठी है। यहां के सारे कामकाज में बहुत मजबूत टीम भावना देखने को मिलती है। डिब्बा पहुंचाने से जो भी पैसा मिलता है, उसे उस रूट के डिब्बावाले आपस में बांट लेते हैं और अपनी आय का कुछ हिस्सा प्रतिमाह संस्था को ट्रस्ट चलाने के लिए देते हैं। वारकरी समुदाय के लोग पीढी दर पीढी नि:स्वार्थ भाव से यह काम किए जा रहे हैं, न नफा न नुकसान के उसूल पर काम करने वाले इन लोगों ने महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थलों पर तीर्थयात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएं बनवाने का काम किया है। त्योहारों केदिन इनकी ओर से वहां अन्नदान भी किया जाता है।

स"ाई और ईमानदारी की पूंजी

कम पढे-लिखे इंसान को आज की तेज रफ्तार जिंदगी में इतना सम्मान मिलना कुछ असंभव सी बात लगती है। इस विषय में रघुनाथ कहते हैं किहमारी संस्था सफाई और ईमानदारी की बुनियाद पर टिकी है। यहां का कामकाज बहुत तेज रफ्तार से होता है। किसी भी बात को लेकर अगर हमारे सहयोगियों के बीच कोई विवाद होता है तो उसका हल हम एक दिन के भीतर ही ढूंढ लेते हैं। हमारे बीच टीम भावना बहुत अच्छी है। हमारे काम करने वाले लोग पढे-लिखे नहीं हैं लेकिन उनकी याददाश्त बहुत तेज है। डिब्बे की पहचान बनाने के लिए सांकेतिक ढंग से उन पर कुछ निशान अंकित किए जाते हैं। उदाहरण के लिए बैंक ऑफ बडौदा चर्चगेट ब्रांच में डिब्बा ले जाने के लिए वे उस डिब्बे पर पहले लिखेंगे-बीबी (बैंक ऑफ बडौदा) आगे सी यानी चर्चगेट। फिर डी कोडिंग में फ्लोर, व्यक्ति का नाम और घर का पता भी लिखा होता है। जिसे हमारे अल्प साक्षर सहयोगी देखते ही पहचान लेते हैं। अपनी साइकिल या हाथगाडी में डिब्बे रखने का इनका क्रम भी इस तरह सुव्यवस्थित होता हैं कि जिस व्यक्ति का ऑफिस रास्ते में पहले आता है, उसका डिब्बा आगे और दूरी के अनुसार अन्य डिब्बे क्रमवार पीछे रखे होते हैं। घर वापस भेजने के लिए कार्यालयों से डिब्बे एकत्र करते समय भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है।

अन्पूर्णा देवो भव

विश्व के कई ग्लोबल इंस्टीट्यूट मुंबई केडिब्बावालों की कडी मेहनत और सुव्यवस्थित कार्यशैली से प्रभावित होकर उन्हें मैनेजमेंट के गुर सिखाने के लिए आमंत्रित करते हैं। इसी सिलसिले में रघुनाथ अपने सहयोगियों के साथ इटली, केन्या और नाइजीरिया के अलावा कई देशों की यात्रा कर चुके हैं।

मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है और अन्नपूर्णा देवो भव को अपना आदर्श सूत्र वाक्य मानकर उसका पालन करने वाले मुंबई के डिब्बावालों को इसीलिए मुंबई की लाइफलाइन माना जाता है।

Friday, January 16, 2009

जब हौसला हो बुलंद तो मंजिल कहा रहती है दूर


जब हौसला हो बुलंद तो मंजिल कहा रहती है दूर। चलकरी के बाद चुटियारो गाव ने भी अपने जबर्दस्त हौसले का नजराना प्रस्तुत किया है। चुटियारो गाव के आमटाड़ टोला के ग्रामीणों ने भी चलकरी के बिरहोरों की तरह श्रमदान कर खुद आधा किलोमीटर पथ निर्माण कर डाला।

पिछले आठ वर्षो से पथ निर्माण की बाट जोह रहे उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र चुटियारो गाव के आमटाड़ टोला के ग्रामीणों ने अपने प्रबल जज्बे का परिचय देते हुए श्रमदान का बीड़ा उठा लिया है। आठ वर्ष पूर्व 23 अप्रैल 2000 को सिन्दरी विधायक फूलचंद मंडल ने पथ निर्माण का शिलान्यास करवाया था तथा शीघ्र पथ निर्माण का आश्वासन दिया था। मगर आजतक इसे धरातल पर नहीं उतारा जा सका। सरकारी आश्वासनों एवं प्रशासनिक उदासीनता को देखते हुए तथा चलकरी से प्रेरणा लेते हुए ग्रामीण खुद श्रमदान कर पथ निर्माण में लग गए। बताते हैं कि मुख्य मार्ग से इस टोले के बीच कोई पथ नहीं था। ग्रामीणों को झाड़ी और खेत पार करके जाना-आना पड़ता था, आमटाड़ स्थित नया प्राथमिक विद्यालय के छात्र-छात्राओं व शिक्षकों को भी काफी परेशानी होती थी। इस कठिनाई को देखते हुए आमटाड़ टोला के 25 आदिवासी परिवारों ने साधोवाद के शिवशकर महतो की देख-रेख में श्रमदान कर कच्ची मोरम-मिट्टी का पथ निर्माण शुरू कर दिया।

गाव के सुखलाल मुर्मू, फूलचंद माझी, राकेश मुर्मू, मंगल मुर्मू, विनय मुर्मू, निरंजन मुर्मू, शिमल देवी, कलावती देवी समेत दर्जनों महिला-पुरुषों व बच्चों ने स्वयं हाथ में कुदाल, बेलचा, गैंता व टोकरी लेकर सरकार द्वारा अधिग्रहित किए गए जमीन पर पथ निर्माण के कार्य कर रहे हैं। गोविंदपुर अंचलाधिकारी ने पथ निर्माण के लिए रेखाकित किया था। जब उन्हें ग्रामीणों द्वारा श्रमदान कर पथ निर्माण की सूचना मिली तो वे खुद मौके पर पहुंचकर ग्रामीणों की पहल की प्रशसा की। साथ ही नरेगा द्वारा दो लाख 66 हजार रुपए का आवंटन पथ बनाने के लिए ग्राम कमेटी को किया। दूसरी ओर पथ निर्माण को लेकर जिन ग्रामीणों की जमीन अधिग्रहण की गई है, उनमें असंतोष देखा जा रहा है। उन्हें अभी तक जमीन के बदले मुआवजा नहीं मिला है।


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी



नमस्कार

Tuesday, January 13, 2009

कैसा हो प्रवेशद्वार



आपने प्राय: ऐसा महसूस किया होगा कि किसी घर में प्रवेश करते समय आपको एक अनजाना-सा सुख, प्रसन्नता एवं ताजगी का अनुभव होता है। दूसरी तरफ कभी-कभी इसके ठीक विपरीत भी होता है। किसी घर में प्रवेश करते समय बाहर से ही उदासी का आभास होता है। वास्तुशास्त्र केअनुसार ऐसा घर में मौजूद सकारात्मक या नकारात्मक ऊर्जा के कारण होता है। यदि मकान का मुख्यद्वार वास्तु के अनुरूप बना हो तो घर में सकारात्मक ऊर्जा का विस्तार स्वत: ही हो जाएगा। अत: आप वास्तुशास्त्र के इन सुझावों पर अवश्य ध्यान दें :

1. मुख्यद्वार का आकार हमेशा घर के भीतर बने सभी दरवाजों की तुलना में लंबाई व चौडाई की दृष्टि से सबसे बडा होना चाहिए।

2. सामान्यत: आजकल 4&8 फुट आकार का मुख्यद्वार वास्तु के अनुसार सर्वोत्तम माना जाता है।

3. प्राय: महानगरों में स्थित फ्लैटों में इतने बडे आकार का मुख्यद्वार बन नहीं पाता और स्थानाभाव के कारण इसे छोटा करना पडता है। ऐसी दशा में मुख्यद्वार 3 &7 फुट का भी रखा जा सकता है। परंतु यह याद रहे कि फ्लैट में भीतर का कोई भी दरवाजा मुख्यद्वार से बडा न हो।

4. यदि किसी कारणवश मुख्यद्वार भवन के अंदर के दरवाजों से छोटा बन गया हो तो उसके आसपास एक ऐसी फोकस लाइट लगाएं, जिसका प्रकाश हर समय मुख्यद्वार और वहां से प्रवेश करने वाले लोगों पर पडे।

5. मकान की चौखट या मुख्यद्वार हमेशा लकडी का बना होना चाहिए। मकान के भीतर केबाकी दरवाजों के फ्रेम या चौखट लोहे के बने हो सकते हैं।

6. मुख्यद्वार हमेशा चौखट वाला होना चाहिए। आज के दौर में ज्यादातर घरों में चौखट की बजाय तीन साइड वाला डोर फ्रेम लगाया जा रहा है। यह वास्तु की दृष्टि से ठीक नहीं होता। इस वास्तुदोष को दूर करने के लिए लकडी की पतली पट्टी या वुडन फ्लोरिंग में इस्तेमाल होने वाली पतली-सी वुडन टाइल को मुख्यद्वार पर फर्श के साथ चिपका देने से भी यह वास्तुदोष दूर किया जा सकता है।

7. लोहा, तांबा, पीतल, स्टील जैसी धातुएं ऊष्मा एवं ऊर्जा की सुचालक होती है और इनसे सकारात्मक ऊर्जा नहीं मिलती। इसलिए मुख्यद्वार के लिए इन धातुओं का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।

8. लकडी के विकल्प के रूप में यदि संपूर्ण भवन में लोहे काफ्रेम या दरवाजा लगाना चाहती हों तो कम से कम मुख्यद्वार लकडी का जरूर होना चाहिए। लेकिन इसके लिए पीपल, बरगद जैसे पूजनीय वृक्षों की लकडी का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

9. मकान के भीतर के सभी दरवाजों के लिए प्रेस्डवुड, पार्टीकल्स, प्लाइवुड, बोर्ड, फाइबर आदि के मैटीरियल का इस्तेमाल किया जा सकता है।

10. वास्तु के अनुसार घर का मुख्यद्वार हमेशा दो पल्ले का बना होना चाहिए।

11. मुख्यद्वार से संबंधित वास्तु दोषों को दूर करने के लिए इसके पास तुलसी के पौधे का गमला रखना चाहिए। इससे किसी भी नकारात्मकऊर्जा का निराकरण किया जा सकता है।

12. यदि घर का प्रवेशद्वार दक्षिण, पश्चिम या नैऋत्य कोण में हो तो उसके भीतर या बाहर गणेश जी की मूर्ति लगाएं।

13. घर के प्रवेशद्वार के आसपास किसी तरह का अवरोध जैसे-बिजली के खंभे, कोई कंटीला पौधा आदि नहीं होना चाहिए।

14. प्रवेशद्वार के आसपास की सफाई का पूरा ध्यान रखें। डस्टबिन सामने न रखें।

15.प्रतिदिन सूरज ढलनेके बाद घर के मुख्य द्वार की लाइट जरूर जलानी चाहिए। इससे घर में लक्ष्मी का आगमन होता है।

Thursday, January 8, 2009

बाइबिल अब ब्रजभाषा में भी



इतना तो सभी जानते हैं कि दुनिया में अगर किसी पुस्तक का सर्वाधिक भाषाओं में अनुवाद किया गया है तो वह बाइबिल ही है। लेकिन अब बाइबिल ब्रजभाषा में भी उपलब्ध है और इस भागीरथी प्रयास को सफल बनाने का कार्य भी ब्रज के ही कुछ मूर्घन्यविद्वानों ने किया है।

यह संभवत:पहला मौका है जब ब्रजभाषा में किसी प्रमुख धर्मग्रंथ का अनुवाद किया गया है। अंतर्राष्ट्रीय बाइबिल सोसायटी की ब्रज समिति द्वारा अंग्रेजी भाषा के मूल संस्करण का ब्रजभाषा में अनुवाद कार्य संपन्न करने में करीब एक दर्जन विद्वानों को बारह वर्ष का समय लगा। इनमें 1133पृष्ठ है ब्रज संस्करण में बाइबिल के पुराने नियम के 36व नए नियम के 27अध्यायों का अनुवाद शामिल किया गया है।

इंटरनेशनल बाइबिल सोसायटी की भारतीय शाखा द्वारा गठित ब्रज समिति के सह समन्वयक प्रभुदयाल ने बताया कि समिति के लिए ब्रजभाषा में बाइबिल जैसे पवित्र ग्रंथ का अनुवाद करने का निर्णय लेना जितना सरल था उसे अंजाम देना उतना ही कठिन। इसीलिए 11सौ से कुछ अधिक पृष्ठों के ग्रंथ का अनुवाद कर प्रकाशन कार्य पूर्ण कराने में उसके कुल चार गुने के बराबर दिन लगे।

उन्होंने बताया कि यूं तो दुनिया की सैकडों भाषाओं में बाइबिल का अनुवाद किया गया है, किंतु ब्रजभाषा में सबसे जटिल समस्या तो अब आई जब इस भाषा के प्रामाणिक शब्दकोष की आवश्यकता महसूस की गई। बोली तथा साहित्य सृजन में अत्यंत समृद्ध ब्रजभाषा का कोई प्रामाणिक शब्दकोष न होना अत्यंत आश्चर्यजनक है।

Wednesday, January 7, 2009

घर में घड़ी जरा सावधानी से लगये .....


अगर आप अपने घर में घडी जैसी समय सूचक वस्तु को व्यवस्थित करते समय वास्तुशास्त्र के इन सिद्धांतों का ध्यान रखेंगी तो यह आपके परिवार के लिए निश्चित रूप से फायदेमंद साबित होगा :

1. घडी को दीवार पर लगाने के लिए उत्तर, पूर्व एवं पश्चिम दिशा का ही चुनाव करें। कभी भी दक्षिण दिशा की दीवार पर घडी न लगाएं। यदि घडी दक्षिण दिशा की दीवार पर लगी होगी तो कार्य प्रारंभ करने से पहले व दिन में कई बार आपका ध्यान दक्षिण दिशा की ओर जाएगा। इस तरह आप बार-बार दक्षिण दिशा की ओर से आने वाली नकारात्मक ऊर्जा ही प्राप्त करती रहेंगी।

2. घडियों के प्रयोग में एक दूसरी विशेष सावधानी यह भी रखनी चाहिए कि किसी भी तरह की घडी चाहे वह टाइम पीस हो या फिर दीवार घडी इन्हें रात को सोते समय सिरहाने से थोडी दूरी पर ही रखें, क्योंकि रात के सन्नाटे में घडी की टिक-टिक से नींद में विघ्न पडेगा। साथ ही आजकल घडियां प्राय: इलेक्ट्रॉनिक सिद्धांत पर कार्य करती हैं और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से जो इलेक्ट्रो-मैग्नेनिटक रेडिएशन निकलते हैं वे मस्तिष्क व हृदय के आसपास एक नकारात्मक ऊर्जा क्षेत्र बना देते हैं। इसके प्रभाव में सोना या लेटना आपके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल सकता है।

3.यह ध्यान रखें कि घडी कभी भी किसी दरवाजे के ऊपर न हो क्योंकि हर बार दरवाजे से अंदर बाहर आते-जाते समय आपका आभामंडल इससे दुष्प्रभावित होगा। परिणामस्वरूप आप तनावग्रस्त हो सकते हैं। यहां तक कि ऐसे दरवाजे से बाहर निकलने के बाद भी मन खिन्न रहेगा।

4.इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि घर में मौजूद सभी घडियां सही ढंग से चलती रहें। कोई भी घडी बंद नहीं होनी चाहिए।

5. यह भी याद रखें कि कोई भी घडी अपने समय से पीछे न चले। हो सके तो अपनी घडी को सही समय से पांच-दस मिनट आगे ही रखें क्योंकि वक्त के साथ चलने में ही जीवन की गति, उन्नति व विकास का रहस्य छिपा है।

6. खराब घडी को शीघ्र ही ठीक करवाएं एवं बैटरी खराब होने पर उसे बदलवाती रहें।

7.आजकल कुछ घडियां हर एक घंटे के बाद संगीत या मधुर ध्वनियां उत्पन्न करती हैं। ऐसी घडियों को घर के ब्रह्म स्थान स्थित लॉबी में लगाएं। इससे सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है व परिवार के सभी सदस्यों के जीवन में उन्नति के नए अवसर प्राप्त होते हैं।

8. दीवार घडी पर धूल-मिट्टी जमा न होने दें। नियमित रूप से उसकी सफाई करती रहें।

9. यह ध्यान रखें कि किसी भी घडी का शीशा टूटा हुआ न हो। ऐसी टूटी हुई घडी को बदल देना चाहिए क्योंकि इसका परिवार के सदस्यों पर नकारात्मक प्रभाव पडता है।

10. सिर्फ घडी ही नहीं, बल्कि कैलेंडर जैसी समय सूचक वस्तु के संबंध में भी आपको इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कैलेंडर फटा हुआ न हो, उस पर कोई अश्लील या हिंसक चित्र भी नहीं होना चाहिए। हर महीने कैलेंडरकी तारीख बदलती रहें और पुराना होते ही उसे हटा दें।