Tuesday, August 25, 2009

बड़े थन वाली गंगातीरी गायें


एक जमाने में उत्तर प्रदेश खासकर पूर्वाचल दूध के मामले में काफी समृद्ध था। बड़े थन वाली गंगातीरी गायें ही इस समृद्धि के मूल में थीं। गंगातीरी की खासियत थी कि वे दिखने में आकर्षक थीं और उनके बछड़े मजबूत कद-काठी के होते। गंगातीरी गायें अधिक दुधारू थीं। लगभग दो दशक पूर्व तक गंगातीरी गायों का ही जमाना था और हर घर के सामने दो-तीन गायें दिख जाती थीं। ..लेकिन समय के साथ ही इन गायों की संख्या कम होने लगी और अब तो इनकी नस्ल पर ही खतरा है।

उनकी नस्ल पर खतरे की वजह यह कि पशुपालक गंगातीरी गायों से ही अधिक दूध वाली नस्ल पैदा करने के लिए जर्सी और फ्रीजीयन नस्ल से अपनी गायों को क्रास कराने लगे या उनका 'सीमेन' चढ़ाने लगे। इससे गंगातीरी बच्चों की नस्ल बदलने लगी और धीरे-धीरे उनकी जगह जर्सी और फ्रीजीयन गायों ने ले ली। यहीं से खत्म होने लगा गंगातीरी का अस्तित्व। आज पूर्वाचल के खासकर बलिया में गंगातीरी गायों की संख्या अंगुली पर गिनी जा सकती है। इनके अस्तित्व पर संकट का दूसरा पहलू गंगातीरी गायों का मजबूत शरीर है जिसके कारण पशु तस्करों की नजर इन पर ज्यादा पड़ी। पशु तस्करों ने इन्हें लम्बे समय तक बिहार-बंगाल भेजा। आज भी इस गाय की अच्छी कीमत लगती है लेकिन खरीदार तस्कर ही होते है।

दिलचस्प है कि पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम जब नाइजीरिया की यात्रा पर गए तो वहां के राष्ट्राध्यक्ष ने उनसे देशी नस्ल [गंगातीरी] की पांच हजार गायों की एक खेप मांगी, लेकिन विडम्बना यह कि काफी प्रयास के बाद भी पशुपालन विभाग मात्र 500 गायें ही उपलब्ध करा सका। उसी समय से शासन-प्रशासन ने इन गायों के प्रति दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी। पहले तो पशु गणना की सूची का अवलोकन किया गया। यदि बलिया जिले की बात की जाय तो यहां [सत्र 2007-08 की पशुगणना के अनुसार] मात्र 2235 गायें ही रह गई है। मुख्य पशु चिकित्साधिकारी डा.वंशराज का कहना है कि सरकार अब गंगातीरी गायों के संरक्षण के प्रति कटिबद्ध है। अब इन गायों की नर प्रजाति को संरक्षित कर उसके सीमेन की सप्लाई नदियों के किनारे वाली बेल्ट में की जा रही है। कोशिश है कि इन इलाकों को फिर से गंगातीरी गायों के लिए ही जाना जाए।

Friday, August 14, 2009

विदेशी भी कर रहे .....





पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करने वाले देश भी हिंदू संस्कारों को तेजी से आत्मसात करने लगे हैं। यही कारण है कि विलायती खून में अब हिंदू धार्मिक संस्कारों के प्रति श्रद्धा बढ़ रही है। आश्चर्य की बात यह है कि इजरायल जैसे कट्टर देश के नागरिकों का भी हिंदू संस्कारों में विश्वास बढ़ने लगा है। यूरोप के कई देशों के नागरिकों का पितृ विसर्जन, अस्थि विसर्जन, रुद्राभिषेक, मुंडन, गोदान करने के लिए तीर्थनगरी पहुंचने का सिलसिला जारी है।

पिछले चार वर्ष में तकरीबन 30 विदेशी नागरिकों की अस्थियों को गंगा में प्रवाहित किया जा चुका है। हरिद्वार आकर करीब चार सौ विदेशियों ने धार्मिक संस्कार संपन्न कराए हैं। यूं तो तीर्थनगरी हरिद्वार के प्रति विदेशियों का लगाव सदियों से रहा है। पहले भी वह इसे धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में देखते रहे, लेकिन बीते चार वर्ष में विदेशियों की सोच में काफी कुछ बदलाव आया है। विशेष तौर पर यूरोपीय देशों डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, फ्रांस, आस्ट्रिया, जर्मनी और इटली के लोग हरिद्वार में हरकी पैड़ी, कनखल सहित अन्य स्थानों पर धार्मिक संस्कार कराने के लिए यहां पहुंच रहे हैं। पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखने वाले विदेशी अब पितृ विसर्जन भी करने लगे हैं। गंगा में अस्थियां प्रवाहित कर स्वर्ग की बात को वह भी मानने लगे हैं। विदेश में मृत्यु होने पर उनकी अस्थियां जहाज से पार्सल कर यहां पंडितों को भेजी जाती हैं। यदि कोई विदेश में संकट में हो या बीमार हो तो उसकी जन्म तिथि और कुंडली मिलान कर यहां पर पूजा अर्चना भी की जाती है। पूजा के उपरांत पंडित प्रसाद को पार्सल करते हैं। प्राच्य विद्या सोसाइटी के निदेशक डा. प्रतीक मिश्रपुरी ने बताया कि उन्होंने अब तक 400 से अधिक विदेशियों के हरकी पैड़ी, कनखल सहित अन्य घाटों पर धार्मिक अनुष्ठान संपन्न कराए हैं।

Monday, August 3, 2009

जान की दुश्मन है यहां की लकड़ी



खबरदार! इस जंगल की लकड़ी को अगर साथ ले जाने की कोशिश की तो किसी अमंगल के लिए तैयार रहें
यहां की लकड़ी सिर्फ मुर्दा जलाने के काम आ सकती है। एक दातुन तक तोड़ने की हिमाकत न कीजिएगा।

अब यह अंधविश्वास है या कुछ और लेकिन यहां हुई कई अनहोनियों को लोगों ने देखा है।

ऊना जिले में गगरेट हलके के तहत मशहूर द्रौण शिव मंदिर के साथ दूर तक फैले जंगल में भले ही लाखों रुपये की लकड़ी गल सड़ जाए, लेकिन यहां से इस लकड़ी को उठाकर कोई भी ले जा नहीं सकता। और तो और आज तक न तो वन महकमे ने और न ही मंदिर के पुजारियों ने बेशकीमती लकड़ी उठाने की हिमाकत की है। कारण यह है कि जिस किसी ने भी इसे उठाने केा प्रयास किया, वही मुसीबत में फंस गया।

किवदंती के अनुसार त्रेता युग में शिवनगरी शिवबाड़ी पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य की नगरी हुआ करती थी। शिवबाड़ी जंगल का समूचा क्षेत्र इसी नगरी का हिस्सा था। जंगल की विशेषता यह है कि गीली लकड़ी भी आसानी से आग पकड़ लेती है। लेकिन यहां की लकड़ी न आपकी रसोई का ईधन बन सकती है न इसे बेच सकते हैं। यह प्रयोग होगी तो सिर्फ अंतिम संस्कार के लिए। हां, इसका इस्तेमाल शिवबाड़ी के साधु महात्माओं का धूना जलाने में होता है।

यहां न तो किसी के अंतिम संस्कार के लिए पेड़ काटने के लिए वन महकमे अनुमति चाहिए और न ही इसे कोई बेच सकता है। अनिष्ट का भय इतना है कि यहां का पत्ता तक लोग नहीं तोड़ते। अम्बोटा गांव के बुजुर्गो के अनुसार, कई साल पूर्व यहां युद्धाभ्यास के लिए सैन्य टुकड़ी ने भोजन पकाने के लिए यहां से लकड़ियां उठानी शुरू कर दीं। कई लोगों ने उन्हें समझाया लेकिन वे ऐसा करते रहे। सेना की टुकड़ी युद्धाभ्यास के बाद लौटने लगी तो उनका एक ट्रक गहरी खाई में पलट गया।

गांववासियों ने सेना के उच्चाधिकारियों को पत्र लिखकर इस संदर्भ से अवगत करवाया। तब से सैन्य टुकड़ियां युद्धाभ्यास के लिए तो आती हैं लेकिन लकड़ी उठाने का जोखिम कोई नहीं लेता। कुछ साल पूर्व शिवबाड़ी के साथ एक ईंट भट्ठे की चिमनी बनाने में लगे मजदूरों ने भी भोजन बनाने के लिए लकड़ियां इकट्ठी की लेकिन चिमनी तैयार होते ही धराशायी हो गई और कई लोग मरने से बचे।

ग्राम पंचायत अम्बोटा के प्रधान कमल ठाकुर के अनुसार, इस जंगल से जिसने भी लकड़ी उठाकर ले जाने की कोशिश की वह किसी न किसी मुसीबत में जरूर फंसा। बकौल ठाकुर, क्षेत्र के लोग इसे भगवान शिव का आशीर्वाद मानते हैं कि अगर मुर्दे के संस्कार के लिए यहां की गीली लकड़ी भी इस्तेमाल की जाए तो भी वह आग पकड़ लेती है।

एसीएफ अंजनी कुमार कहते हैं कि अगर शिवबाड़ी मंदिर के संचालक जंगल में गिरी लकड़ी उठाना चाहते हैं तो विभाग को आवेदन कर सकते हैं। उन्होंने माना कि जंगल के साथ लोगों की धार्मिक आस्थाएं जुड़ी होने के कारण शवदाह के लिए लकड़ी काटने पर राहत दी गई है।

अजब और गजब बाते हमारे देश में भरी पड़ी है.........विशवास /अंधविश्वास का खेल क्या हमारे संस्कारो को बदल देगा ?

"हिंदुस्तान" से सभार