एक जमाने में उत्तर प्रदेश खासकर पूर्वाचल दूध के मामले में काफी समृद्ध था। बड़े थन वाली गंगातीरी गायें ही इस समृद्धि के मूल में थीं। गंगातीरी की खासियत थी कि वे दिखने में आकर्षक थीं और उनके बछड़े मजबूत कद-काठी के होते। गंगातीरी गायें अधिक दुधारू थीं। लगभग दो दशक पूर्व तक गंगातीरी गायों का ही जमाना था और हर घर के सामने दो-तीन गायें दिख जाती थीं। ..लेकिन समय के साथ ही इन गायों की संख्या कम होने लगी और अब तो इनकी नस्ल पर ही खतरा है।
उनकी नस्ल पर खतरे की वजह यह कि पशुपालक गंगातीरी गायों से ही अधिक दूध वाली नस्ल पैदा करने के लिए जर्सी और फ्रीजीयन नस्ल से अपनी गायों को क्रास कराने लगे या उनका 'सीमेन' चढ़ाने लगे। इससे गंगातीरी बच्चों की नस्ल बदलने लगी और धीरे-धीरे उनकी जगह जर्सी और फ्रीजीयन गायों ने ले ली। यहीं से खत्म होने लगा गंगातीरी का अस्तित्व। आज पूर्वाचल के खासकर बलिया में गंगातीरी गायों की संख्या अंगुली पर गिनी जा सकती है। इनके अस्तित्व पर संकट का दूसरा पहलू गंगातीरी गायों का मजबूत शरीर है जिसके कारण पशु तस्करों की नजर इन पर ज्यादा पड़ी। पशु तस्करों ने इन्हें लम्बे समय तक बिहार-बंगाल भेजा। आज भी इस गाय की अच्छी कीमत लगती है लेकिन खरीदार तस्कर ही होते है।
दिलचस्प है कि पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम जब नाइजीरिया की यात्रा पर गए तो वहां के राष्ट्राध्यक्ष ने उनसे देशी नस्ल [गंगातीरी] की पांच हजार गायों की एक खेप मांगी, लेकिन विडम्बना यह कि काफी प्रयास के बाद भी पशुपालन विभाग मात्र 500 गायें ही उपलब्ध करा सका। उसी समय से शासन-प्रशासन ने इन गायों के प्रति दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी। पहले तो पशु गणना की सूची का अवलोकन किया गया। यदि बलिया जिले की बात की जाय तो यहां [सत्र 2007-08 की पशुगणना के अनुसार] मात्र 2235 गायें ही रह गई है। मुख्य पशु चिकित्साधिकारी डा.वंशराज का कहना है कि सरकार अब गंगातीरी गायों के संरक्षण के प्रति कटिबद्ध है। अब इन गायों की नर प्रजाति को संरक्षित कर उसके सीमेन की सप्लाई नदियों के किनारे वाली बेल्ट में की जा रही है। कोशिश है कि इन इलाकों को फिर से गंगातीरी गायों के लिए ही जाना जाए।