जरा सोचिए कि भीड-भाड और धक्का-मुक्की वाली ट्रैफिक में अपने साथ टिफिन बॉक्स लेकर चलने के बोझ से अगर आपको मुक्ति मिल जाए और साथ ही ठीक लंच टाइम पर ऑफिस में ही घर का बना ताजा और स्वादिष्ट खाना भी मिल जाए तो कितना अच्छा हो। बमुंई शहर के अति व्यस्त लोगों की जिंदगी को थोडा सुकून देने में यहां के डिब्बावालों का बडा ही महत्वपूर्ण योगदान है।
व्यस्तता का बेहतर विकल्प
मुंबई में लोग सुबह बहुत जल्दी अपने काम पर निकल जाते हैं। उस समय उनके लिए अपने साथ टिफिन ले जाना संभव नहीं होता। यहां की लोकल ट्रेनों में सुबह और शाम के समय इतनी ज्यादा भीड होती है कि व्यक्ति के लिए ट्रेन में चढ पाना भी बहुत मुश्किल होता है। ऐसी स्थिति में टिफिन का डिब्बा साथ लेकर चलना तो संभव ही नहीं है। हमेशा यह डर बना रहता है कि कहीं खाने का डिब्बा हाथ से छूट न जाए। मुंबई के डिब्बावाले उन्हें इस मुश्किल से निजात दिलाते हैं और उन्हें उनके कार्यस्थल पर घर का ताजा और स्वादिष्ट खाना उपलब्ध करवाते हैं।
इनकी वजह से खाने वाले तो खुश रहते ही हैं। साथ ही गृहिणियों को भी इस चिंता से मुक्ति मिल जाती है कि घर का बना खाना कहीं दोपहर तक खराब तो नहीं हो गया होगा, आज पति टिफिन ले जाना भूल गए तो कैंटीन में पता नहीं कैसा खाना मिला होगा, पता नहीं खाना खाया भी होगा या नहीं आदि। चाहे बारिश आए या तूफान, मुंबई के डिब्बावाले हर हाल में अपने ग्राहकों को वर्षो से सही समय पर घर का खाना पहुंचाते आ रहे हैं।
कैसे हुई शुरुआत
मुंबई डिब्बावाला संस्था के अध्यक्ष रघुनाथ मेदगे का कहना है कि हमारी संस्था-नूतन टिफिन कंपनी का आरंभ हुआ था-1890 में। उस वक्त मुंबई शहर का तेजी से विकास हो रहा था। काम पर जाने वाले लोग जब सुबह घर से निकलते थे, तब घर पर उतनी जल्दी टिफिन तैयार करने में गृहिणियों को असुविधा होती थी क्योंकि उस जमाने में एलपीजी गैस, मिक्सर-ब्लेंडर, प्रेशर कुकर, फ्रिज जैसे रसोई के कामों को आसान बनाने वाले उपकरण मौजूद नहीं थे। अंगीठी पर खाना बनने में काफी समय लगता था। मजबूरी में लोगों को दोपहर का भोजन बाहर करना पडता था। इसी असुविधा को दूर करने के लिए मेरे मामा महादेव हावजी बच्चे ने मात्र 100 ग्राहकों को डिब्बा पहुंचाने की सुविधा देकर इस सेवा की शुरुआत की थी। उनके बाद मेरे पिताजी डी.आर. मेदगे ने इस संस्था का काम आगे बढाया। मेरे पिताजी 25 वर्षो तक नूतन टिफिन कंपनी के अध्यक्ष थे। 1980 में उनके निधन के बाद से मैं इस संस्था का कामकाज देख रहा हूं। वेस्टर्न रेलवे, सेंट्रल रेलवे और हार्बर रेलवे पर हमारे पांच हजार डिब्बावाले कार्यरत हैं, जो दिन भर में दो लाख मुंबईवासियों को उनके घर से ऑफिस तकडिब्बे पहुंचाते हैं। लंच टाइम के बाद टिफिन बॉक्स को कार्यालयों से एकत्र करके घर तक पहुंचाते हैं। हम सिर्फ सरकारी अवकाश और रविवार के दिन छुट्टी पर होते हैं। पूरे मुंबई शहर के अलग-अलग छह क्षेत्रों (दादर, ग्रैंड रोड, अंधेरी, मुलुंड, चेंबूर और घाटकोपर) में हमारे ऑफिस हैं।
सादगी का पर्याय
लोगों के घरों से खाने का डिब्बा एकत्र करके उन्हें उनके कार्यस्थल तक पहुंचाने की इनकी कार्यपद्धति अत्यंत व्यवस्थित है। मुंबई के सारे डिब्बेवाले वारकरी समुदाय के हैं, जिनकी बोलचाल की भाषा मराठी है। सफेद कुर्ता-पायजामा, गले में रुद्राक्ष की माला, सिर पर गांधी टोपी और पैरों में कोल्हापुरी चप्पल। इसी लिबास में सभी डिब्बावाले नजर आते हैं। इनका यह पारंपरिक पहनावा अघोषित यूनिफॉर्म बन गया है। विट्ठल भगवान में आस्था रखने वाले इन सीधे-सादे कर्मठ लोगों के बारे में जानकर आपको आश्चर्य होगा। ज्यादातर डिब्बावाले मात्र साक्षर होते हैं और ये सिर्फअपनी मातृभाषा मराठी में थोडा-बहुत पढ-लिख सकते हैं। फिर भी ये अपनी नेकी, ईमानदारी और कामकाज के सुव्यवस्थित तरीके से सभी को अचंभित कर देते हैं। ये अपना काम कितनी निष्ठा से करते हैं, इसका अंदाजा इस छोटे से प्रसंग से लगाया जा सकता है कि जब प्रिंस चार्ल्स ने इन लोगों से मिलने की इच्छा जाहिर की तो इन लोगों ने उन्हें दोपहर के बाद भीड भरे चर्चगेट स्टेशन पर मिलने का समय दिया ताकि इससे डिब्बा पहुंचाने के काम में किसी तरह की देर न हो। मुंबई के ये डिब्बावाले दुनिया भर में सर्वश्रेष्ठ मैनेजमेंट गुरु के नाम से मशहूर हो चुके हैं और इन पर बीबीसी जैसी संस्थाओं ने डॉक्यूमेंट्री फिल्में तक बनाई हैं।
आमंत्रण प्रिंस चार्ल्स का
इंग्लैड के राजकुमार प्रिंस चार्ल्स जब भारत आए थे तो वह मुंबई के डिब्बावालों की योजनाबद्धकार्यशैली से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने देश में मैनेजमेंट का पाठ पढाने के लिए इन्हें आमंत्रित किया। इतना ही नहीं, उन्हें महारानी एलिजाबेथ की ओर से प्रिंस की शादी में भी सादर आमंत्रित किया गया। इस राजसी शादी में शरीक होने वाले देश-विदेश के 1500 अतिथियों में मुंबई के सीधे-सादे डिब्बावालों को आमंत्रित किया जाना उनके लिए वाकई गर्व की बात थी।
उस अविस्मरणीय प्रसंग को याद करते हुए रघुनाथ भावुक हो उठते हैं, 8 अप्रैल 2005 को कैमिला पार्कर से प्रिंस चार्ल्स की शादी थी। हमें भी आमंत्रित किया गया था। हमारी महीने की आमदनी मात्र 5 हजार रुपये होती है। इतने पैसे में हम आम लोग रानी साहिबा के लिए क्या तोहफा ले जाएं, हमारी समझ में नहीं आ रहा था? लेकिन लोगों के बीच हमारी इतनी अच्छी साख बन गई थी कि जब उन्हें यह खबर मिली कि हम प्रिंस की शादी में जा रहे हैं, तो हमारी मदद में कई लोगों और संस्थाओं ने बढ-चढकर हिस्सा लिया। किसी ने प्रिंस को भेंट करने के लिए पगडी दी तो किसी ने रानी के लिए शालू दिया (कीमती मराठी साडी, जिसे पारंपरिक रूप से शादी के वक्त यहां दुलहन पहनती है)। फिर हमने मिठाइयां खरीदीं और उनसे मिलने चल पडे।
इंग्लैंड पहुंचने के बाद शाही अंदाज में हमारी आवभगत की गई। चूंकि हमें अंग्रेजी नहीं आती थी इसलिए जयपुर घराने की महारानी पद्मिनी देवी हमारेसाथ दुभाषिए की भूमिका निभा रही थीं और प्रिंस चार्ल्स को उन्होंने हमारी कार्यशैली के बारे में विस्तार से बताया।
वक्त के पाबंद
हर दिन मुंबईवासियों को 2 लाख टिफिन पहुंचाते हैं-महज पांच हजार डिब्बावाले, वह भी नाममात्र के पैसे लेकर। महीने के मात्र 250 से 300 रुपये लेकर डिब्बावाले अपनी सेवा उपलब्ध करवाते हैं। यह भी एक आश्चर्य की बात है कि पिछले 150 वर्षो से चलने वाली यह सेवा आज तक कभी भी बाधित नहीं हुई है। चाहे बारिश हो या तूफान, इनकी सेवा में कभी कोई कोताही नहीं होती। ये अपना डिब्बा हमेशा लंच टाइम से थोडी देर पहले ही पहुंचा देते हैं। खाने के डिब्बे लोकल ट्रेनों से गंतव्य स्थान तक ले जाने के लिए ये ट्रेन से उतरने के बाद साइकिल या हाथगाडी का इस्तेमाल वर्षो से करते आ रहे हैं। लेकिन मुंबई की इतनी भीड भरी ट्रैफिक के बावजूद इनके काम में कभी देर नहीं होती।
मजबूत टीम भावना
मुंबई के डिब्बावालों की कार्यशैली भी अनूठी है। यहां के सारे कामकाज में बहुत मजबूत टीम भावना देखने को मिलती है। डिब्बा पहुंचाने से जो भी पैसा मिलता है, उसे उस रूट के डिब्बावाले आपस में बांट लेते हैं और अपनी आय का कुछ हिस्सा प्रतिमाह संस्था को ट्रस्ट चलाने के लिए देते हैं। वारकरी समुदाय के लोग पीढी दर पीढी नि:स्वार्थ भाव से यह काम किए जा रहे हैं, न नफा न नुकसान के उसूल पर काम करने वाले इन लोगों ने महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थलों पर तीर्थयात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएं बनवाने का काम किया है। त्योहारों केदिन इनकी ओर से वहां अन्नदान भी किया जाता है।
स"ाई और ईमानदारी की पूंजी
कम पढे-लिखे इंसान को आज की तेज रफ्तार जिंदगी में इतना सम्मान मिलना कुछ असंभव सी बात लगती है। इस विषय में रघुनाथ कहते हैं किहमारी संस्था सफाई और ईमानदारी की बुनियाद पर टिकी है। यहां का कामकाज बहुत तेज रफ्तार से होता है। किसी भी बात को लेकर अगर हमारे सहयोगियों के बीच कोई विवाद होता है तो उसका हल हम एक दिन के भीतर ही ढूंढ लेते हैं। हमारे बीच टीम भावना बहुत अच्छी है। हमारे काम करने वाले लोग पढे-लिखे नहीं हैं लेकिन उनकी याददाश्त बहुत तेज है। डिब्बे की पहचान बनाने के लिए सांकेतिक ढंग से उन पर कुछ निशान अंकित किए जाते हैं। उदाहरण के लिए बैंक ऑफ बडौदा चर्चगेट ब्रांच में डिब्बा ले जाने के लिए वे उस डिब्बे पर पहले लिखेंगे-बीबी (बैंक ऑफ बडौदा) आगे सी यानी चर्चगेट। फिर डी कोडिंग में फ्लोर, व्यक्ति का नाम और घर का पता भी लिखा होता है। जिसे हमारे अल्प साक्षर सहयोगी देखते ही पहचान लेते हैं। अपनी साइकिल या हाथगाडी में डिब्बे रखने का इनका क्रम भी इस तरह सुव्यवस्थित होता हैं कि जिस व्यक्ति का ऑफिस रास्ते में पहले आता है, उसका डिब्बा आगे और दूरी के अनुसार अन्य डिब्बे क्रमवार पीछे रखे होते हैं। घर वापस भेजने के लिए कार्यालयों से डिब्बे एकत्र करते समय भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है।
अन्पूर्णा देवो भव
विश्व के कई ग्लोबल इंस्टीट्यूट मुंबई केडिब्बावालों की कडी मेहनत और सुव्यवस्थित कार्यशैली से प्रभावित होकर उन्हें मैनेजमेंट के गुर सिखाने के लिए आमंत्रित करते हैं। इसी सिलसिले में रघुनाथ अपने सहयोगियों के साथ इटली, केन्या और नाइजीरिया के अलावा कई देशों की यात्रा कर चुके हैं।
मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है और अन्नपूर्णा देवो भव को अपना आदर्श सूत्र वाक्य मानकर उसका पालन करने वाले मुंबई के डिब्बावालों को इसीलिए मुंबई की लाइफलाइन माना जाता है।
bahut acchi jaankaari....
ReplyDeletebahut achchha likha apne.
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