Monday, January 4, 2010

"माँ होती तो”....

न माँ से कुछ पूछते हुए न पापा को कुछ बताते हुए


कुछ ज़िन्दगी ऐसी भी न रोते हुए न मुस्कुराते हुए



जैसे मुक्कमल हसरतें दिल की सारी हो रही हो

ख्वाबों को हकीक़त में बदलने की तैयारी हो रही हो

माचिस के डिब्बों से एक छोटा सा घर बनाते हुए



मानो वो बचपन अपनी ही अदा भुला बैठा हो

महफूज़ सा कल भी कहीं खफा खफा बैठा हो

जूठे गिलास धोते हुए पुराने जूते चमकाते हुए



"माँ होती तो”.... उन्हें ये तस्सवुर ही नहीं है

पेट भी भरता होगा उनका ये ज़रूरी नहीं है

सिकुड़ कर के बदन को ठण्ड से वो बचाते हुए



बहुत होंगे पर कोई इतना बदनसीब क्या होगा

इन मासूमों से ज्यादा भी कोई गरीब क्या होगा

एक अदद गुब्बारे की ज़रूरत को भी छिपाते हुए

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