Monday, November 24, 2008

..ये आंखें भी देखने लगी हैं ख्वाब



बात कोई दो साल पुरानी होगी। एक जलसे में मुसलमानों के पिछड़ेपन और मुख्यधारा से उनके अलग होने पर चिंता जताई जा रही थी। वहीं लखनऊ के शायर सैफ बाबर ने यह शेर पढ़ा-

मेरी आंखें पढ़के देखो, आंखों में हैं ख्वाब बहुत, दरिया कितने छोटे-छोटे, लेकिन हैं सैलाब बहुत।

शायर की वह बात अब हकीकत में बदलती दिख रही है। लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रो.अकील अहमद कहते हैं, 'मुसलमानों की आंखें भी ख्वाब देखने लगी हैं। वे बदहाली के बजाय अपनी तरक्की की चर्चा चाहते हैं।' यह बात किताबी मानी जा सकती थी, लेकिन उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक वित्त एवं विकास निगम, राष्ट्रीयकृत बैंक और प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंगों के आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि मुसलमानों की आंखें अब वाकई ख्वाब देखने लगी हैं। उनका नजरिया बदला है। कम आमदनी के बावजूद उनमें बच्चों को महंगी फीस वाले व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश दिलाने का जज्बा आया है। इसके लिए वे कर्ज लेने से भी नहीं हिचक रहे। अल्पसंख्यक वित्त एवं विकास निगम से पिछले दो सालों में पांच सौ से अधिक अभिभावकों ने अपने बच्चों को व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला दिलाने के लिए एजुकेशन लोन लिया और दो हजार से ज्यादा अभिभावक 'क्यू' में हैं। यही ब्योरा राष्ट्रीयकृत बैंक भी देते हैं।

कोचिंगों में भी छात्र बढ़े

आईएएस-पीसीएस कोचिंग संस्थान 'राव' के निदेशक अंशुमान द्विवेदी दावा करते हैं कि प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए मुस्लिम छात्रों की संख्या बढ़ी है। पहले ऐसे बैच होते थे, जिनमें एक भी मुस्लिम छात्र नहीं होता था, लेकिन अब ऐसा कोई बैच नहीं होता, जिसमें मुस्लिम बच्चे न हों।

लड़कियां पराई नहीं

लड़कियां तो पराई होती हैं, उन्हें ससुराल जाना है, तो फिर उनकी पढ़ाई के लिए कर्ज क्यों लिया जाए? इस सोच में बदलाव की बयार सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं, बल्कि उसने लड़का-लड़की का फर्क मिटा दिया है। ऐसे ही हैं उत्तर रेलवे में रासायनिक एवं धातु अधीक्षक शकील अहमद, जिनकी दो बेटियां हैं। बड़ी बेटी एमबीए करना चाहती थी और छोटी बी टेक, लेकिन फीस तनख्वाह से निकालना मुमकिन नहीं था। दोस्तों, रिश्तेदारों का दबाव, लड़कियां हैं-शादी हो जाएगी, फिर इतनी महंगी तालीम दिलाने से क्या फायदा। लेकिन शकील साहब और उनकी बेगम और ही मिट्टी के थे। उन्होंने बड़ी बेटी को एमबीए कराने के लिए स्टेट बैंक से चार लाख का लोन लिया, तो छोटी के लिए पीएफ से। कोर्स पूरा होते-होते दोनों बेटियों का कैंपस सेलेक्शन हो गया। बड़ी बेटी को इंफोसिस में नौकरी मिली और छोटी भी एक नामचीन कंपनी में सीनियर रिसर्च एसोसिएट हो गई। एक बेटी की शादी अगले महीने है। हमने पूछा कि आपको कर्ज लेते हुए ये नहीं लगा कि नौकरी लगते ही लड़की की शादी हो जाएगी और वह वहीं के वहीं। सवाल सुन वह जोर से हंसे और बोले, हमने मां-बाप होने का फर्ज निभाया है।

अल्पसंख्यक वित्त निगम और बैंक दोनों के आंकड़े बताते हैं कि मुस्लिमों में कम से कम दस फीसदी ने लड़कियों के लिए एजुकेशन लोन लिया था। अंशुमान द्विवेदी इस चेतना से खुश हैं। उनके अनुसार मुस्लिम अभिभावक खुद आते हैं और परीक्षा की बाबत जानकारी करने के बाद लड़कियों को बताते हैं और फिर वे दाखिला लेती हैं। प्रोफेसर अहमद सोच में परिवर्तन की दो वजहें बताते हैं। कहते हैं- हम जिस सोसाइटी में मिक्स हुए, उसने सोच विकसित की कि हमारा गुजारा अब फिटर या मैकेनिक या ग्रुप सी की सरकारी नौकरी से नहीं होने वाला। दूसरी वजह कि प्राइवेट सेक्टर का दायरा बढ़ा, उसमें मुस्लिम बच्चों की तादाद बढ़ी, तो उन्हें हौसला मिला कि अच्छी तालीम हो तो अच्छी नौकरी मिलेगी।

तरक्की की चर्चा हो

आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली कहते हैं कि हम नहीं चाहते मुसलमानों की चर्चा तभी हो, जब आतंकी घटना हो या फिर गरीबी और लाचारी का सुबूत देना हो। बेशक, यह बदलाव सैफ बाबर को अगले जलसों में अपना यह शेर कहने को बार-बार मजबूर करेगा-

हमारी आंखों में मोती हैं, जानते हैं वो, जो लोग सैफ समंदर के रहने वाले हैं।

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