Tuesday, March 3, 2009

असली भक्ति गोरे विदेशियों में

असली भक्ति गोरे विदेशियों में

प्रफुल्लित होकर नाचते, गाते, उछलते, तालियां एवं विभिन्न वाद्य बजाते हरि बो, जय बिहारी जी, श्री राधे राधे आदि का उच्च स्वर में उद्घोष करते और समवेत स्वर में मनमोहकभजनों का गायन करते उन अनन्य भक्तों की मंडली नगर के मुख्य बजारोंसे होकर आगे बढ रही थी।

भजन मंडली के मार्ग में पडने वाले घरों के लोग, दुकानदार और राहगीर सांसे रोके यह नजारा देख रहे थे। यूं ऐसा दृश्य भारत के प्राय: सभी नगरों में देखा जा सकता है। लेकिन यहां एक बडा फर्क है। यहां जो लोग मंडली में शामिल है, वे अन्यत्र दर्शकों में शुमार होते और जो यहां दर्शक बने बैठे हैं वे अन्यत्र निश्चित रूप से मंडली के सदस्य होते।

भक्ति की यह उल्टी गंगा भगवान श्री कृष्ण की लीला स्थली वृंदावन में बहती है जहां की अधीश्वरी उनकी शक्ति स्वरूपाराधारानीहै।

स्वनामधन्य श्रीमद्एसीभक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपादजी द्वारा स्थापित अंतर्राष्ट्रीय श्री कृष्ण भावनामृतसंघ [इस्कान] की यह बहुत बडी उपलब्धि है कि उसने सात समन्दर पार के गोरे जन समुदाय को भगवान कृष्ण की भक्ति से ऐसा जोडा कि भारत के लोग ही इसमें उनसे बहुत पीछे रह गए।

इस्कानके संपर्क में आने पर जब गोरों को लगा कि असली धर्म तो कृष्ण भक्ति में निहित है तो उन्होंने सब कुछ त्यागकर कृष्ण भक्ति की राह पकड ली। भारत में धर्म भीरूलोग अंदर से चाहने के बावजूद खुलकर धार्मिक इसलिए नहीं बनना चाहते कि इससे कहीं उनकी धर्म निरपेक्ष छवि पर दाग नहीं लग जाए। ऐसे लोगों के लिए ये विदेशी कृष्ण भक्त एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। धोती कुर्ता एवं कंठी माला पहने तिलक लगाए तथा जाप के लिए हाथ में गोमुखीमाला लिए इन नवभक्तोंको वृंदावन की कुंज गलियों में नंगे पैर विचरण करते कभी भी देखा जा सकता है।

सिर भले ही मुडाहो लेकिन शास्त्र सम्पतगाय के खुर के समान मोटी चुटिया उनके अप्रतिम हिन्दू भक्त होने का पूरा प्रमाण प्रस्तुत करती है। महिलाएं साडी तथा अंगरखा पहने रहती है। आधा मीटर कपडे की ब्लाउज नहीं, बल्कि साडी तथा पूरे दो मीटर कपडे के अंगरखा से उनका तन पूरी तरह से ढका रहता है। छोटी-छोटी लडकियों का भी यही पहनावा है।

विडंबना यह है कि विदेशियों पर नजर पडते ही दुकानदार हरि बोल हरि बोल का उच्चारण करते हुए उन्हें अपना माल बेचने की जुगत में लग जाते हैं। चूंकि बात हरि बोल से शुरू हुई है, अत:वे दुकानदारों की बात सुन तो लेते हैं लेकिन वे इतने नादान भी नहीं है कि अपने साथ हो रही चालाकी को ताड न सके।

एक ओर हर कोई आज अपनलोकप्रियता के लिए संघर्षरत है वहीं वृंदावन में रह रहे ये गोरे अपने प्रचार के भी इच्छुक नहीं है। भगवान को अमानी मानदो मान्योंकहा गया है। अर्थातवह अपना मान नहीं चाहतें और सबके मान्य होने के बावजूद दूसरों को ही मान देते हैं। ये ही गुण इन भक्तों ने भी आत्मसात कर लिए हैं। प्रेस से भी वे बात नहीं करते। कहते हैं कि इससे उनकी भक्ति प्रभावित होती है और अनवरत चलने वाले उनके मंत्रजापका क्रम टूटता है।

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