Monday, December 15, 2008

गंगा में रोटी ढूंढता बचपन


गंगा में रोटी ढूंढता बचपन


वर्षीय विनय को जब स्कूल में होना चाहिए, वह गंगा के जल में घुटनों खड़ा सिक्के तलाशा करता है। वह भी क्या करे, मजबूर है। पिता का पैर सड़क दुर्घटना में खराब हो चुका है और मां दूसरों के घरों में काम करती है। इसलिए विनय घर की गाड़ी खींचने में मां की मदद करता है। उसी के जैसी है चार साल की त्रिवेणी की दुर्भाग्य कथा। वह भी स्कूल न जाकर गंगा में श्रद्धालुओं द्वारा फेंके गए सिक्के बीनती है।

विनय और त्रिवेणी की तरह न जाने कितने बच्चे गंगा के पावन तट पर अपना बचपन खो रहे हैं। ऋषिकेश का त्रिवेणी घाट हो या गंगा का कोई अन्य किनारा, हर रोज कुछ बच्चे व किशोरियां सूरज की पहली किरणों के साथ ही गंगा में उतर जाते हैं। हाथों में पारदर्शी कांच लिए गंगा की तलहटी से पत्थरों के बीच सिक्कों की तलाश में शाम तक न मालूम कितनी बार मौत का सामना ये मासूम करते हैं। ऐसे एक दो नहीं, बल्कि दर्जनों बच्चे हैं, जो दिन भर इसी काम में लगे रहते हैं। इनमें से अधिकतर गंगा किनारे बसी मलिन बस्तियों के बच्चे हैं। सर्दियों में ठंडे पानी में दिन भर खड़े रहने से इन्हें बीमारियां होती हैं, पानी के तेज बहाव में दुर्घटनाएं भी हो चुकी हैं। और दिन भर की इस मेहनत और जोखिम के बदले इन बच्चों के हाथ लगते हैं बीस से तीस रुपये। त्योहारों में यह राशि जरूर कुछ बढ़ जाती है।

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