प्यार में मोबाइल
अपनी ना-लायकी के चलते मनुष्य को जो कुछ कुदरत से नहीं मिला वह उसे विज्ञान ने दिया है। विज्ञान द्वारा मनुष्य को प्रदत्त कई शक्तियों में से एक है- दूर वार्ता शक्ति.. कहीं भी दूर बैठे-बैठे जब जिससे मर्जी जहां चाहे मर्जी बात कर ली। प्राचीन काल में यह शक्ति सिर्फ साधकों को मिलती थी और वह भी तब जब वे हिमाद्रि तुंग श्रृंगों या घने वनों में वटवृक्षों के नीचे कई वर्षो तक एकटक नॉन स्टॉप तपस्या करके देवराज इंद्र का सिंहासन डोलायमान कर देते थे। इस तरह की आराधना से सिद्धि प्राप्त कर वे जब चाहें आंखें मूंदते और जहां चाहे बात कर लेते। पर अब, इस घोर कलयुग में यह शक्तिशाली सिद्धि हर बंदे को हासिल है। बिना किसी कठोर तप के, सिर्फ चंद रुपयों में। अब लौकिक कोटि में आ चुकी इस महान शक्ति और अद्वितीय सिद्धि का नाम है मोबाइल फोन।
यही नहीं, मोबाइल कंपनियों के बीच तो आजकल हर ऐरे-गैरे नत्थू खैरे को यह सिद्धि प्रदान करने की होड लगी है। कम से कम पैसों में इसकेयंत्र-मंत्र-तंत्र सब उपलब्ध करा दिए जा रहे हैं।
अजी! इस बात से हमें कोई कष्ट नहीं। हम तो साष्टांग दंडवत करते हैं इस सर्वसाधिनी सिद्धि केसमक्ष। पर एक अदना-सा गिला अवश्य है, कि इसने हम जैसे प्रेम पगलाए प्राणियों को अपनी विरह-अवस्था के आनंद से वंचित कर दिया है।
जैसे कि सूर्य के समान तेजस्वी, चंद्रमा के समान स्निग्ध एवं जल के समान तरल परंतु अविख्यात, अज्ञात एवं आचार्यो-डाक्टरों के साहित्य इतिहास में आने से बाल-बाल बचे मध्ययुगीन अपूर्व प्रेमासक्त कवि श्रीयुत् लोटा प्रसाद जी कह गए हैं -
बिन बिरह प्रेम ने ऊपजै, बिन प्रेम न बिरहा आय
अर्थात् न तो बिरह के बिना प्रेम उपजता है और न प्रेम के बिना बिरहा ही आती है। इनका अस्तित्व एक-दूसरे के बिना असंभव है। ये परस्पर उसी प्रकार अन्योन्याश्रित हैं जैसे पार्टी नेता और पार्टी कार्यकर्ता। सो प्रेम हाट के ठेकेदार होने के नाते हमें हर-हमेशा यही भय सताता है कि मोबाइल देव विरह का अंत करते-करते कहीं प्रेम को भी न झटका दें।
पहले विरहावस्था से उद्विग्न होकर यक्ष मेघों को दूत बना अपनी प्रेयसी के पास भेजता था। दरद दीवाणी मीरा पपीहे को प्रिय तक संदेश ले जाने के बदले सोने में चोंच मढाने का वादा करती थी और मुगल वंश अवतंस सलीम कबूतरों की कूरियर सेवा का उपयोग करते थे। जैसा कि महाकवि के.आसिफ के अत्यंत प्रिय दृश्य काव्य मुगले आजम में दर्शाया गया है। परंतु अब विरह आतप में तपन की नौबत ही नहीं आती। इधर याद आई और उधर रिंग गई। जितना चाहे बतिया लो। अब विरह आती भी है तो तब जब बैट्री डाउन हो गई हो या टॉक-टाइम ही खत्म हो गया हो। वैसे अब दूसरी मुश्किल का हल ढूंढ लिया गया है। छोटा रीचार्ज करा लो। जितनी छोटी बात, उतना छोटा रीचार्ज। बात न हो पा रही हो तो एसएमएस कर लो। कुछ प्रेमालु बंधु सुबह-शाम-रात गुड मार्निग, गुड ईवनिंग, गुड नाइट का मंत्र जपते ही रहते हैं और अगर दफ्तर में सहकर्मिणी सुंदरी से फुर्सत हो तो पत्नी को गुड आफ्टर नून भी कह लेते हैं। पिछले कुछ समय से एक नई प्रथा का जन्म हुआ है। इधर चट मंगनी हुई, उधर पट मोबाइल गिफ्ट किया। फिर टाक टू मी के फ्री नंबरों पर जो बतियाड शुरू होती है तो पांच दिवसीय टेस्ट की तरह चलती ही रहती है। लडका-लडकी ऐसे दीर्घ अबाधित प्रेमालाप में निमज्जित होते हैं कि कुनबे वाले उन्हें उसी प्रकार छोडकर भाग खडे होते हैं जैसे पुष्प वाटिका में श्रीराम-सीता के प्रथम मिलन की बेला में महाराज निमि पलकों को झपकाना छोड कर भाग गए थे-
चारु बिलोचन भए अचंचल॥
सकुचि निमि जनु तजे दिगंचल॥
कुछ आर्थिक रूप से समृद्ध किस्म के प्रेमीजन प्रिया को यंत्र रूपी सेट और तंत्र रूपी सिम सब उपलब्ध कराते हैं और अबाधित प्रेमालाप हेतु उनका व्यय इस प्रकार वहन करते हैं जैसे पिता अपनी अपरिणीता पुत्री का करता है।
दीर्घतम प्रेमालाप का एक अनुभव सेवक को तब हुआ जब वह अमृतसर से लुधियाना आने के लिए शान-ए-पंजाब में बैठा ही था कि एक शान-ए-खानदान सामने आ बैठी। सेवक को शान-ए-पंजाब की तेज गति को सुमिर कर मन में क्षोभ हुआ। परंतु जैसे ही गाडी चली, वैसे ही कन्याकुमारी ने मोबाइल निकाल कर बात चला दी। रह-रह कर लाल हुआ कान पोंछ लेती, बार-बार पसीने से भीगता मोबाइल साफ कर लेती पर बात थी कि सूर्य की गति के समान थमी ही नहीं। महज एक नजर की आस लिए बैठे सेवक का लुधियाना आ गया, पर उनकी बात न रुकी। खन्ना, अंबाला, पानीपत का हाल मेरा सहयात्री जाने।
काश! यह मोबाइल नामधारी सूक्ष्म यंत्र पहले होता तो दुष्यंत-शकुंतला में गलतफहमी क्यों पैदा होती। अंगूठी की जगह मोबाइल न दे आता। दमयंती नल की खोज में वन-वन क्यों भटकती। न कालिदास का यक्ष विरह में तपता और न मीरा, घनानंद, शिवकुमार बटालवी विरह का काव्य रचते।
यह सत्य है कि मोबाइल ने विरह की अवधारणा विनष्ट कर दी है, परंतु अब एक नए किस्म का विरह उत्पन्न हो गया है। यह है स्वयं मोबाइल का विरह जो असह्य श्रेणी का है। एक दिन हमारे एक सहकर्मी दफ्तर में उस दशा में टक्करें मारते फिर रहे थे जैसे सीता हरण के पश्चात् दंडकारण्य में राम। हमने भैया लक्ष्मण की तरह उन्हें संभालते हुए पूछा, भैया! इतने उद्वेलित क्यों? बोले, हे तात्! सुबह चार्जिग पर लगाया था। गलती से घर ही रह गया।
निष्कर्ष यह है कि अपनी तमाम सीमितताओं-असीमितताओं के बावजूद मोबाइल प्रेम-दूब केलिए खाद का काम कर रहा है। पंत आज होते तो कहते-
मोबाइलधारी होगी पहली कवयित्री रिंगटोन से उपजा होगा गान। उसके प्रेमी ने भिजवाया होगा टाक टू मी का फ्री-प्लान।
सभार जागरण डॉ. राजेंद्र साहिल
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